________________ कहते हैं। यह ध्यान सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनिराज के ही सम्भव है, गृहस्थ अवस्था में यह ध्यान सम्भव नहीं है। इसी सन्दर्भ में आचार्य कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि गृहस्थों के भी यह निरालम्ब ध्यान होता है तो वह जिनेन्द्रवाणी रूप शास्त्रों को नहीं मानता है। इसका कारण स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं कि गृहस्थों के हमेशा बाहरी परिग्रह में ममत्व रहता है और अनेक प्रकार के आरम्भ में प्रतिसमय संलग्न रहता है। उसको घर और व्यापार के कई काम करने पड़ते हैं. और यदि ऐसी अवस्था में वह ध्यान करने के लिये आँखें बन्द करता है तो उसके समक्ष सम्पूर्ण घर-परिवार, व्यापार, पस्ग्रिह, आरम्भ आदि उपस्थित हो जाते हैं। यदि कोई ध्यान करने का प्रयास करे तो उससे उसे कोई लाभ प्राप्त नहीं होता, वह मात्र दिखाता है, क्योंकि ऐसे ध्यान में चित्त की स्थिरता बनना बड़ा मुश्किल है। परन्तु किसी भी ध्यान की सन्तान परम्परा चलती रहती है। सावलम्बन ध्यान - पञ्च परमेष्ठी को आलम्बन स्वरूप ध्यान करना सावलम्बन ध्यान कहलाता है। इन परमेष्ठियों के ध्यान करने से अशुभ कर्मों की विशेष निर्जरा होती है। आलम्बन सहित धर्म्यध्यान के जो आलम्बन स्वरूप हैं उनके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं अरिहन्त परमेष्ठी - अरिहन्त परमेष्ठी का स्वरूप प्ररूपित करते हुए आचार्य लिखते हैं कि - हरिरइयसमवसरणो अट्ठमहापाडिहेर संजुत्तो। सियकिरणविष्फुरंतो झायव्वो अरूहपरमेट्ठी॥' अर्थात् जो इन्द्र की आज्ञा से कुबेर द्वारा बनाये हुए समवसरण में विराजमान हैं, आठ महाप्रातिहार्यों से शोभा को प्राप्त हो रहे हैं और अपनी प्रभा की श्वेत किरणों से दैदीप्यमान हो रहे हैं, ऐसे भगवान् जिनेन्द्रदेव को अरिहन्त परमेष्ठी कहते हैं। ऐसे अरिहन्त परमेष्ठी के स्वरूप को प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि - चार घातिया कर्मों को भा. सं. गा. 381-382 भा. सं. गा. 380 भा. सं. गा. 375 278 Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org