________________ आत्मा का ध्यान करते हैं और न ही परगत पञ्च परमेष्ठी का ध्यान करते हैं, किन्तु बिना किसी आलम्बन के किसी पदार्थ का चिन्तन करता है वह है रूपातीत ध्यान।' और कहते हैं कि जिस ध्यान में इन्द्रियों के समस्त विकार नाश को प्राप्त हो जाते हैं, राग-द्वेष सभी विकारी भाव नष्ट हो जाते हैं उसको रूपातीत ध्यान कहा जाता है। इस ध्यान में सर्वप्रथम साधक परमात्मा के गुणों का पृथक्-पृथक् ध्यान करता है। उससे उन गुणों के पिण्ड स्वरूप परमात्मा के गुण-गुणी में अभेद रूप भावना के द्वारा चिन्तन करता हुआ स्वयं परमात्मा रूप हो जाता है। इस अवस्था में ध्याता और ध्येय एकरूप हो जाते हैं। इस स्थिति में आत्मा स्वयं ही परमात्मस्वरूप को अनुभव करता है। जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब समस्त अवयव लक्षण आदि से सहित देखा जाता है उसी प्रकार परमात्मा के ज्ञान में जगत् के समस्त चराचर पदार्थ दिखाई देते हैं, ऐसे केवलज्ञान को साधक ध्यान करता है। इस प्रकार से इन ध्यानों का सामान्य से वर्णन किया। अब जो धर्म्यध्यान के आचार्यों ने दस भेद बताये हैं उनका सामान्य रूप से संक्षेप में चित्रण करते हैं 1. अजीव विचय - धर्म-अधर्म आदि अजीव द्रव्यों के स्वभाव का चिन्तन करता .... है वह अजीव विचय नामक धर्म्यध्यान कहलाता है। 2. अपाय विचय - मन, वचन और काय इन तीन योगों की प्रवृत्ति हो, प्रायः संसार का कारण है सो इन प्रवृत्तियों का मेरे अपाय अर्थात् त्याग किस प्रकार हो सकता है, इस प्रकार शुभ लेश्या से अनुरंजित जो चिन्ता का प्रबन्ध है वह अपाय विचय नामक ध्यान है।' 3. उपाय विचय - पुण्य रूप शुभ योग प्रवृत्तियों को अपने अधीन करना उपाय है और वह मेरे किस प्रकार से हो सकते हैं, ऐसे संकल्पों की जो सन्तति है वह उपाय विचय ध्यान कहलाता है। भा. सं. गा. 628 ह. पु. 56/44 वही 56/39-40 वही 56/41 276 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org