________________ इस प्रकार से इस ध्यान में योगी मुनि क्रमशः मन को स्थिर करके शुक्ल ध्यान की ओर अग्रसर होता है। जिस प्रकार सूर्योदय होने पर उल्लू भाग जाते हैं, उसी प्रकार इस पिण्डस्थ ध्यान रूपी धन के नजदीक होने से विद्या, मण्डल, मंत्र, तंत्र, यन्त्र, इन्द्रजाल के द्वारा कपटाचार रूप क्रिया, सिंह, सर्प, आशीविष, दैत्य, हस्ती, अष्टापद आदि ये सब ही सारहीनता को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् किसी भी प्रकार का उपद्रव इनको हानि नहीं पहुँचा पाते हैं, और भी आचार्य कहते हैं कि डाकिनी, शाकिनी, ग्रह, राक्षस आदि भी अपनी खोटी-क्रूर वासनाओं को त्याग कर देते हैं। - आचार्य वसुनन्दि महाराज अन्य प्रकार से भी पिण्डस्थ ध्यान का स्वरूप प्ररूपित करते हुए कहते हैं कि - मनुष्य के शरीर और तीन लोक की रचना शैली समान है। यदि कोई मनुष्य उचित अन्तर के साथ पैरों को दायें बायें लम्बा फैलाकर और कमर पर दोनों हाथ रखकर एकदम सीधा खड़ा हो जाये तो यह लोक का आकार बन जाता है। जिस प्रकार सम्पूर्ण लोक में सबसे मध्य में सुमेरु पर्वत है, उसी प्रकार मनुष्य के सम्पूर्ण शरीर के मध्य में नाभि की संरचना है। नाभि के नीचे अर्थात् नाभि से पाँव के पंजे तक को अधोलोक की संज्ञा दी जा सकती है। नाभि के चारों ओर के तिर्यक् . भाग को तिर्यक् लोक अर्थात् मध्य लोक की संज्ञा दी जा सकती है। नाभि को सुदर्शन मेरु मानकर जम्बूद्वीप आदि असंख्यात द्वीप-समुद्रों की कल्पना की जाती है। नाभि के ऊपरी भाग में ऊर्ध्वलोक की संरचना का विचार करना चाहिये। जिस प्रकार सुमेरु पर्वत के ठीक ऊपर सौधर्म आदि स्वर्गों की स्थिति है, वैसे ही नाभि के ऊपर सीने की आठ युगल की सोलह हड्डियों को सोलह स्वर्ग मानकर चिन्तन करना चाहिये। उसके ऊपर गले की तीन रेखाओं में तीन-तीन ग्रैवेयकों की कल्पना करके चिन्तन करना चाहिये। उसके ऊपर हनु प्रदेश अर्थात् ठोड़ी (दाढ़ी) के स्थान पर नव अनुदिश विमानों का चिन्तन करना चाहिये। मुख प्रदेश पर नाक को सर्वार्थसिद्धि मानकर गालों के दो गड्ढों और आँखों को क्रमशः विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमान मानकर पाँच अनुत्तरों का ध्यान करना चाहिये। ललाट (मस्तक) प्रदेश पर सिद्ध शिला का ध्यान और उसके ऊपर उत्तमांग जो सिर के बीचों-बीच ब्रह्मस्थान है, में लोकशिखर के तुल्य 264 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org