________________ ध्यान के विषय में ही ध्यान का निश्चय की अपेक्षा लक्षण वर्णित करते हुए आचार्य कहते हैं कि - जिस ज्ञानी मुनि के मोह और राग-द्वेष रूप भावकर्म नहीं हैं तथा मन, वचन, काय रूप योगों के प्रति उसका उदासीन भाव है उसे शुभ रूप और अशुभ रूप उपयोग का दाह करने वाली ध्यानमय अग्नि निश्चय से प्रकटित होती है।' ध्येय ध्यानी को किसका ध्यान करना चाहिये अथवा ध्यान करने योग्य ध्येय कौन सा पदार्थ है इस संसार में? तो उसको प्रदर्शित करते हुए आचार्य कहते हैं कि - निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा अर्थात् ज्ञानी मुनि स्वयं अपने आत्मस्वरूप को अपने आत्मतत्त्व में, निज आत्मा के द्वारा, निज आत्मा के लिये, अपने-अपने हेतु से ध्यान करता है। अतः कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण इस प्रकार षट्कारक स्वरूप परिणमन करता हुआ आत्मतत्त्व ही ध्यान स्वरूप अथवा ध्येय है। जो लोग ऐसा सोचते हैं कि आधे खुले हुए नेत्रों से या बन्द आँखों से ध्यान की साधना संभव है तो आचार्य योगीन्दु देव कहते हैं कि - अर्द्ध उन्मीलित नेत्रों से . . अथवा आँखों को बन्द करने से क्या ध्यान की प्राप्ति हो सकती है? कभी भी नहीं हो सकती है। जो जीव इन सब विकल्पों से रहित होकर चित्त में एकाग्रता को ग्रहण करके आत्मतत्त्व में स्थित हो जाते हैं, मात्र उनको ही इस प्रकार स्वयं ही मोक्ष रूपी सुख की प्राप्ति होती है।' ध्यान के भेद चित्त में शुभोपयोग और अशुभोपयोग की अपेक्षा आचार्यों ने ध्यान के मुख्य रूप से दो भेद किये हैं। उन दोनों के नामों का वर्णन करते हुए आचार्य वट्टकेर स्वामी कहते हैं कि अशुभ चिन्तन के कारण आर्तध्यान और रौद्रध्यान को अप्रशस्त और शुभ पञ्चास्तिकाय गा. 146 तत्त्वानुशासन श्लो. 74 परमात्मप्रकाश 2/169 246 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org