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________________ इससे यह स्पष्ट हो गया कि जो आत्मतत्त्व का चिन्तन करे वह आराधक और जो परद्रव्य का चिन्तन करे वह विराधक होता है। अब यहाँ एक और प्रश्न उठ खड़ा होता है कि जो न आत्मा को जानता है और न परपदार्थ को जानता है उसके आराधना सम्भव हो सकती है अथवा नहीं। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं जो णवि बुज्झइ अप्पा णेय परं णिच्छयं समासिज्ज। तस्स ण बोही भणिया सुसमाहीराहणा णेय॥' अर्थात् जो पुरुष निश्चय नय का आलम्बन कर आत्मा को नहीं जानता है और न ही पर पदार्थों को जानता है उसके न तो बोधि कही गई है, न ही बोधि का फल सुसमाधि कही गई है और न ही आराधना कही गई है। ज्ञान-दर्शन स्वभाव से युक्त जीव को ही आत्मा कहा गया है। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म रूप जो द्रव्य आत्मा के साथ संलग्न है वह परद्रव्य है। इस तरह निज और पर को जानना बोधि है। बोधि का ही निर्विघ्न रूप से भवान्तर (आगामी पर्याय) में प्राप्त होना समाधि है। आराधना का लक्षण पहले कह आये हैं। जितने भी अब तक सिद्ध हुए हैं वे सब भेद-विज्ञान के द्वारा ही हुए हैं और जिनके भेद-विज्ञान का अभाव है वे आज तक कर्मबन्धन में बंधे हुए हैं। ऐसे जीव के आराधना तो होती ही नहीं, उसकी पूर्ववर्तिनी समाधि और समाधि की पूर्ववर्तिनी बोधि भी नहीं होती। अत: निजात्मा को उपादेय और परद्रव्य को हेय समझना चाहिये। आराधक के गुण - आराधक का स्वरूप वर्णित करने के पश्चात् अब आराधक में किस प्रकार के गुण विद्यमान होते हैं सो कहते हैं अरिहो संगच्चाओ कसायसल्लेहणा य कायव्वा। परिसहचमूण विजओ उवसग्गाणं तहा सहणं॥ / इंदियमल्लाण जओ मणगयपसरस्स तह य संजमणं। काऊण हणउ खवओ चिरभवबद्धाइ कम्माई।। आराधनासार गा. 21 आराधनासार गा. 22-23 224 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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