________________ करना (अनुप्रेक्षा), पठित पाठ को बार-बार दुहराना (आम्नाय) और प्रथमानुयोग आदि ग्रन्थों के अर्थ को भव्यों को समझना, उनको तत्त्वज्ञान कराना (धर्मोपदेश), ऐसे पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना, स्वाध्याय तप कहलाता है। 5. व्युत्सर्ग - बाह्य में परिग्रह के प्रति ममत्व का त्याग करना और शरीर के प्रति भी ममत्व का और कषायों का त्याग करना व्युत्सर्ग तप कहलाता है। 6. ध्यान - मन को सकाग्र करके अपने आप में स्थिर करना, सारे विकल्पों को दूर करके निर्विकल्पक समाधि में लीन हो जाना ध्यान तप है। यहाँ विशेष बात यह जानने योग्य है कि मात्र चारित्र संसार के दु:खों का कारण (उपाय) नहीं हो सकता, वह ज्ञान से सहित हो तभी लाभकारी है। बिना ज्ञान के चारित्र धारण करने से मोक्ष की प्राप्ति होना असंभव है। जैसे किसी व्यक्ति को दिल्ली जाना हो. परन्तु वहाँ जाने का मार्ग उसे मालूम (ज्ञात) न हो तो वह अपनी स्वेच्छा से यहाँ-वहाँ विचरण करने लगे तो क्या वह अपने गन्तव्य तक पहुँच सकता है? नहीं। उसी प्रकार जो चारित्र के सही ज्ञान न होने पर यदि वह कुछ भी अपनी इच्छा से आचरण करने के कारण वह मोक्ष रूपी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकेगा। अतः इन दोनों के सामञ्जस्य बिना इष्टलक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। इसी विषय में विशेष प्रकाश डालते हुए डा. आनन्द कुमार जैन अपने लघु शोध प्रबन्ध में लिखते हैं कि - जैनदर्शन के सिद्धान्त क्षेत्र में रहते हुए यदि इस विषय पर मन्थन किया जाय तो फल यह होगा कि मेधावी व्यक्ति सदैव यथाशक्ति तप करने का विचार करता है और इसके पालन करने में प्रमाद नहीं करता, परन्तु इतनी बात अवश्य है कि जो निरुत्साहित होकर तप करता है तो वह मात्र कायक्लेश ही सहता है और उस तप से भवनत्रिक और वहाँ से एकेन्द्रिय आदि पर्यायों में अनन्त दु:खों का वेदन करता है। मोक्ष के इच्छुकं साधुजनों की गणना इनमें नहीं की जाती है, क्योंकि वे तप गुप्ति सहित करते हैं। अतः मोक्षप्राप्ति में वही तप सार्थक है जो सामर्थ्यपूर्वक मोक्षरूप उद्देश्य सहित होता है। चैतन्य स्वरूप की प्राप्ति आराध्य है, सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति में उपाय स्वरूप यह आत्मा ही आराधना है, उसी आत्मस्वरूप में अनुचरण करने वाला वह जीव ही आराधक 219 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org