________________ स्वरूप द्रव्य के नाश का प्रसंग प्राप्त होता है। मक्ति में ज्ञानादि गुणों का अभाव मानने पर परमात्मा के अचेतनत्व का प्रसंग आ जायेगा। ईश्वरवादी परमात्मा को सदा मुक्त मानते हए भी उसको सृष्टि का कर्त्ता मानते हैं। उनका निराकरण करने के लिये 'किदकिच्चा' विशेषण दिया है। अनन्त चतुष्टय को धारण किये हुए भी विशुद्ध स्वभाव वाले सिद्ध परमेष्ठी प्रयोजन के अभाव के कारण तथा कर्म निर्जरा और तत्सम्बन्धी अनुष्ठान कर चुकने के कारण कृतकृत्य हो चुके हैं। अतः परमात्मा सृष्टिकर्ता है, यह कहना अयुक्त है। मंडलिक दार्शनिक मानते हैं कि - परमात्मा ऊर्ध्व स्वभाव के कारण बिना रुकावट ऊपर चले जा रहे हैं। इनका निराकरण करने के लिये ही कहा है कि - लोक के अंग्रभाग में निवास करते हैं। गमन में सहकारी धर्मद्रव्य लोक के बाहर नहीं है, इसलिये वे आगे नहीं जाते बल्कि लोक के 'अग्रभाग' में विराजमान रहते हैं। इसी विषय को आचार्य देवसेन स्वामी ने बड़ी सरलता और संक्षेप रूप में वर्णन करते हए लिखा है कि - 14वें गणस्थान में आठों कर्मों का नाश करके ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से एक ही समय में लोक के अग्रभाग में पूर्व शरीर से किञ्चित् ऊन आकार में विराजमान हो जाते हैं। किञ्चित् ऊन से यह आशय है कि - शरीर में जहाँ -जहाँ आत्मा के प्रदेश नहीं हैं, ऐसे पेट, नासिका और कान आदि के छिद्र। अतः चरम शरीर के आकार के घनफल से सिद्धों के आत्मा के आकार का घनफल कुछ कम हो जाता है। त. सू. 10/8, धर्मास्तिकायाभावात्। भा. सं. गा. 687-688 193 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org