________________ लोकपूरण - घन लोक प्रमाण केवली भगवान् के जीवप्रदेशों का सर्वलोक के व्याप्त करने को लोकपूरण समुद्घात कहते हैं। यहाँ यह आशय है कि आत्मप्रदेश जो वातवलय शेष रह गये थे अब उनमें भी फैल जाते हैं। इस तरह सम्पूर्ण लोक के प्रत्येक प्रदेश में आत्म प्रदेश व्याप्त हो जाते हैं। केवली समुद्घात करने से सभी अघातिया कर्मों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त कैसे हो जाती है? जबकि उनकी स्थिति ज्यादा होती है। इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार सिमटी हुई गीली साड़ी को फैला दिया जाय तो वह तुरन्त सूख जाती है। इसी प्रकार आत्मप्रदेशों को सम्पूर्ण लोक में फैला दिया जाता है जिससे कर्मों की स्थिति अनुभागादि शीघ्र ही अन्तर्मुहूर्त हो जाती है। जबकि केवली समुद्घात के होने में मात्र आठ समय लगते हैं। इसमें दण्ड, कपाट, प्रतर, लोकपरण फिर प्रतर, कपाट, दण्ड और स्वशरीर प्रवेश इस तरह आठ समय लगते हैं।' केवली समुद्घात किन-किन जीवों के होता है? इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि - जिनकी आयु 6 माह शेष रह गई हो और ऐसे में उनको केवलज्ञान की प्राप्ति हो तो वे केवली नियम से समुद्घात करते हैं। शेष केवली कर भी सकते हैं नहीं भी करते हैं, कोई नियम नहीं है।' परन्तु यतिवृषभाचार्य के अनुसार सभी केवली, केवली समुद्घात करके ही भुक्ति को प्राप्त होते हैं। केवली समुद्घात के आठ समयों में दण्ड द्विक अर्थात् पहले और सातवें समय की दोनों अवस्थाओं में औदारिक काय योग होता है। कपाट समुद्घात के दो समय दूसरा और छठवाँ समय में औदारिक मिश्र काय योग होता है और प्रतर, लोकपूरण और प्रतर इन तीसरे, चौथे, पाँचवें समय में कार्मण काय योग हैं तथा इन्हीं तीनों समयों में नोकर्माहार का ग्रहण नहीं होता है इसलिये अनाहारक होते हैं। शेष समयों में आहारक रहते हैं। रा. वा. 1/20/12, भ. आ. 2113-2116 पं. सं. प्रा. गा. 197,198, भ. आ. 2115, क्ष. सा. 627 भ. आ. 2109, पं. सं. प्रा. 1/200, ध. 1/30, ज्ञा. 42/42, व. श्रा. 530 पं. सं. प्रा. 199 क्ष. सा. 619 182 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org