________________ इसी सन्दर्भ में आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि जो पुरुष कवलाहार करता है वह सोता भी है। जो सोता है वह पुरुष अन्य अनेक इन्द्रियों के विषयों का अनुभव करता है तथा जो इन्द्रियों के विषयों का अनुभव करता है वह वीतराग और सर्वज्ञ कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता है।' यद्यपि केवली भगवान् के नोकर्माहार और कर्माहार आगम में बतलाया है परन्तु वह भी उपचार से बतलाया है। निश्चय नय से देखा जाय तो वह भी नहीं है। इसका भी कारण यह है कि केवली भगवान् परम वीतरागी हैं, इसलिये उनके आहार की कल्पना हो ही नहीं सकती। फिर भी केवली भगवान् के कवलाहार मानना अज्ञानता ही है और ऐसा कहने से केवली का अवर्णवाद होता है जिससे दर्शन मोहनीय का ही आस्रव होता आचार्य यतिवृषभ लिखते हैं कि केवली उपसर्ग, कषाय और क्षुधादिक बाईस परीषहों एवं राग-द्वेष से परित्यक्त हैं। यहाँ कोई शंका करता है कि जब मोहनीय का सद्भाव नहीं है तो 'एकादश जिने' इस प्रकार उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थ सूत्र में 11 परीषह क्यों माने हैं? इसका समाधान करते हुए आचार्य पूज्यपाद एवं अकलंक स्वामी कहते हैं कि द्रव्यकर्म के सद्भाव की अपेक्षा यहाँ परीषहों का उपचार किया गया है जबकि वेदना का तो यहाँ अभाव है।' यहाँ आचार्य का यह आशय है कि घातिया कर्म रूपी सहायक के अभाव से अन्य कर्मों की सामर्थ्य नष्ट हो जाती है जैसे मन्त्र-औषधि के प्रयोग से जिसकी मारण शक्ति क्षीण हो गई है ऐसे विष को खाने पर भी मरण नहीं होता इसीलिये असाता का उदय होने पर भी केवली भगवान् के क्षुधादि परीषह उपचार से होते हैं। पञ्चेन्द्रियों के विषय में आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि - केवलियों के यद्यपि भावेन्द्रियों का नाश हो चुका है और बाह्य इन्द्रियों का व्यापार भी बन्द हो गया है तो भी छद्मस्थ अवस्था में भावेन्द्रियों के निमित्त से निर्मित हुई द्रव्येन्द्रियों के सदभाव भावसंग्रह गा. 114 त. सू. 6/13 ति. प. 1 स. सि. 9/11, रा. वा. 9/11/1 178 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org