________________ इस गुणस्थान में ही मरण करने वाला जीव अनुत्तर विमानों में ही पैदा होता है। * इस गुणस्थान में किन्हीं आचार्यों की अपेक्षा एक शुक्लध्यान किन्हीं के अनुसार दो होते हैं। * इस गुणस्थान में एक सातावेदनीय का ही बंध होता है जो कि एक समयवर्ती है। जिस समय कर्म का बंध होता है उसी समय बाद उदय में आकर नष्ट हो जाता है। ** इस गुणस्थान का नाना जीवों की अपेक्षा विरहकाल 1 समय जघन्य, 6 माह प्रमाण उत्कृष्ट है। 12. क्षीणमोह गुणस्थान इस गुणस्थान का पूर्णनाम ‘खीणकसाय वीयराय छदुमत्था' है। अर्थात् क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ है। जिनकी कषाय क्षीण हो गई है उन्हें क्षीणकषाय कहते हैं। जो क्षीणकषाय होते हुए वीतराग होते हैं उन्हें क्षीणकषाय वीतराग कहते हैं। जो छद्म अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण में रहते हैं उन्हें छद्मस्थ कहते हैं। जो क्षीणकषाय वीतराग होते हुए छद्मस्थ होते हैं क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ कहते हैं।' इस गुणस्थान के स्वरूप को सोदाहरण प्रस्तुत करते हुए आचार्य लिखते हैं कि - मोहनीय कर्म सम्पूर्ण क्षीण हो जाने से जिसका चित्त स्फटिक के निर्मल भाजन में रखे हुए सलिल के समान स्वच्छ हो गया है ऐसे निर्ग्रन्थ साधु को वीतरागियों ने क्षीणकषाय संयत कहा है। यहाँ आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार निर्मली आदि से स्वच्छ किया हुआ जल शुद्ध स्वच्छ स्फटिक मणि के भाजन में नितरा लेने पर सर्वथा निर्मल, स्वच्छ एवं शुद्ध परिणाम वाला जानना चाहिये। यह गुणस्थान सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने पर प्राप्त होता है, इसीलिये आचार्य इसको क्षीणमोह गुणस्थान भी कहते हैं। ध. 1/189 प्रा. पं. सं. 1/25, ध. 1/123, गो. जी. गा. 62, भा. सं. गा. 662, पं. सं. सं. 1/48 रा. वा. 9/1/22 170 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org