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________________ और उसे काना सिद्ध कर पाना प्रत्यक्ष रूप से सम्भव नहीं है। इस प्रकार पुनः पुनः 6वें वें गणस्थान में डोलायमान होने का कारण कोई बाह्य क्रिया न होकर मात्र अन्तरंग में स्थित संज्वलन कषाय का तीव्र एवं मन्द उदय ही है। संज्वलन कषाय के तीव्र उदय में हवाँ तथा मन्द उदय में सातवाँ गुणस्थान होता है। इसी प्रकार जो द्वितीय भेद है सातिशय अप्रमत्तविरत, उसका स्वरूप निर्देशित करते हुए आचार्य कहते हैं कि - अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण- संज्वलन सम्बन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ तथा हास्यादि नव नोकषाय मिलकर मोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों के उपशम या क्षय करने को आत्मा तीन करणों में से जो प्रथम अधः प्रवृत्तकरण करता है वह सातिशय अप्रमत्त विरत कहलाता है।' यहाँ आचार्य का यह आशय है कि - चौथे गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान तक (पर्यन्त) किसी भी गुणस्थान में जिस वेदक सम्यग्दृष्टि ने अधः करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण इन तीनों करणों द्वारा अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करके पुनः तीन करणों के द्वारा दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों का उपशम करके द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है अथवा इन्हीं तीनों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। वह द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारित्र मोहनीय की अप्रत्याख्यानावरणादि 21 प्रकृतियों का उपशम करने के योग्य होता है, किन्तु चारित्र मोहनीय की 21 प्रकृतियों के क्षपण के योग्य मात्र क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही होता है, क्योंकि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि क्षपकश्रेणी पर आरोहण नहीं कर सकता। परन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि दोनों श्रेणियों पर आरोहण कर सकता है। ऐसा सम्यग्दृष्टि प्रमत्त से अप्रमत्त में और अप्रमत्त से प्रमत्त में संख्यात बार भ्रमण करके अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा विशुद्ध होता हुआ सातिशय अप्रमत्त हो जाता है। यह वैसी ही अवस्था है जैसी कि कोई मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व का ग्रहण करने से पहले जब पहला अधः प्रवृत्तकरण करता है तब आचार्यों ने उसको सातिशय मिथ्यादृष्टि कहा है। ऐसा ही यहाँ सम्यग्दृष्टि जीव श्रेणी आरोहण करने के लिये प्रथम अधः प्रवृत्त करण कर रहा है। प्रमाद पर पूर्ण विजय प्राप्त कर स्थायी रूप से अप्रमत्त ल. सा. गा. 205, गो. जी. गा. 47 156 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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