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________________ जाता है और वहाँ से गिरकर छठवें गुणस्थान में आ जाता है। इस अवस्था में छठवें गुणस्थानवर्ती जीव के चार भाव घटित हो जाते हैं। * कोई क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि मुनि जब उपशम श्रेणी माड़ने के सम्मुख होता है, उस समय वह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है। इस अपेक्षा से भी छठवें गुणस्थान में चार भाव घटित हो जाते हैं। * इस गुणस्थान में 53 प्रकृतियाँ बन्ध के योग्य नहीं हैं एवं उदय की अपेक्षा 41 , प्रकृतियाँ अनुदय योग्य हैं। * छठवें गुणस्थान में जीव रहने वाले के भुज्यमान आयु की अपेक्षा मनुष्य आयु, बध्यमान की अपेक्षा देव आयु का सत्त्व होता है। * यह जीव शुभोपयोगी होता है। * इस गुणस्थान में तीन शुभ लेश्यायें होती हैं। * पुलाक, बकुश, कुशील (प्रतिसेवना, कषाय) इसी गुणस्थान से प्रारम्भ होते हैं। 7. अप्रमत्त संयत गुणस्थान इस गुणस्थान का नाम 'अपमत्तसंजदा' है। इस गुणस्थान को 'अपमत्तविरदो' भी. कहते हैं। संजद और विरद शब्द एकार्थवाची हैं। प्रमाद रहित साधु अप्रमत्त संयत कहलाते हैं। इस गुणस्थान में जो 'अपमत्त' शब्द है वह आदि दीपक है अर्थात् इस गुणस्थान से लेकर 14वें गणस्थान तक के सभी जीव अप्रमत्त ही रहते हैं। अप्रमत्त विरत का स्वरूप बताते हुए आचार्य करणानुयोग की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए कहते हैं कि , संज्वलन कषाय और नोकषाय का जब मन्द उदय होता है तो वह अप्रमत्तविरतगुणस्थान कहलाता है और इसमें रहने वाले मुनिराज अप्रमत्तविरत कहलाते हैं। यहाँ पर यह आशय है कि - अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषाय का तो अनुदय रहता है तथा संज्वलन और नोकषाय का भी मन्द उदय होने से वह प्रमाद को उत्पन्न नहीं कर पाता है। इसी कारण यह गुणस्थान अप्रमत्त कहलाता है। गो. जी. का. गा. 45 154 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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