________________ आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि - जो संयत होते हुए भी असंयत है वह संयतासंयत कहलाता है। इसी प्रसंग में आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी अपने विचारों को व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि जो एकदेश विरति में लगा हुआ है वह श्रावक होता है।' श्रावक का स्वरूप प्रकाशित करते हुए पं. आशाधर जी लिखते हैं कि - पञ्च परमेष्ठी की भक्ति में लीन, प्रधानता से दान और पूजन करने वाला, भेदज्ञान रूपी अमृत का पिपासु और मलगणों एवं उत्तरगुणों को पालन करने वाला श्रावक कहलाता है। विद्वान् भी अपने विचार व्यक्त करते हुए श्रावक शब्द में से ही परिभाषा निकालते हुए कहते हैं कि - जो श्रद्धावान्, विवेकवान् और क्रियावान् होता है वही श्रावक कहलाता है। श्रावक को बारह व्रत और अष्ट मूलगुण से सहित आचार्य देवसेन स्वामी ने भी स्वीकार किया है और भावसंग्रह में उन बारह व्रतों का संक्षेप में स्वरूप भी लिखा है। उन बारह व्रतों का संक्षेप में स्वरूप इस प्रकार है - त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करना, सत्य बोलना, बिना दिये हुए पदार्थ को कभी ग्रहण न करना, परस्त्रीसेवन त्याग और परिग्रह का परिमाण करना ये पाँच अणुव्रत कहलाते हैं। इसके बाद दिशा-विदिशाओं में आने जाने का नियम करके शेष दिशा-विदिशा में आने-जाने का त्याग करना, पाँचों प्रकार के अनर्थदण्डों का त्याग करना, भोगोपभोग पदार्थों की संख्या नियतकर शेष पदार्थों का त्याग कर देना ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं।' प्रातः, मध्याह्न, संध्याकाल इन तीनों समयों में परमेष्ठी की स्तुति करना, प्रत्येक महीने की दो अष्टमी दो चतुर्दशी इन चारों पर्यों में प्रोषधोपवास करना, प्रतिदिन अतिथियों को दान देना और सल्लेखना धारणा करना ये चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं। - देशव्रती पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावक इन बारह व्रतों का पालन करता है। इन बारह व्रतों का विस्तार से वर्णन अगले चतुर्थ अध्याय जो कि 'आचार्य देवसेन की पु. सि. उ. 41 सा. ध. 1/15 भा. सं. गा. 353 वही गा. 354 वही गा. 355 145 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org