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________________ सम्यक्त्व के नाम से जनमानस में चिर-परिचित हैं। आचार्य देवसेन स्वामी ने भी भावसंग्रह ग्रन्थ में दो और तीन सम्यक्त्व के भेदों को स्वीकार किया है।' 1. औपशमिक सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व का स्वरूप विवेचित करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि - अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन सात प्रकृतियों के उपशम होने से जो श्रद्धान प्रकट होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। इसी लक्षण को और अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि - दर्शन मोहनीय के उपशम से, कीचड के नीचे बैठ जाने से निर्मल जल के समान पदार्थों का जो निर्मल श्रद्धान होता है. वह उपशम सम्यग्दर्शन है। आचार्य कहते हैं कि यह भी क्षायिक सम्यक्त्व से कुछ कम नहीं है। पञ्चसंग्रह में आचार्य प्ररूपित करते हैं कि इसके होने पर जीव के समीचीन देव में अनन्य भक्ति-भाव, विषयों से विराग, तत्त्वों का श्रद्धान और अनेक प्रकार के मिथ्यामतों से किञ्चित् भी प्रभावित नहीं होता है। औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति बताते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि - औपशमिक सम्यक्त्व की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त हैं। औपशमिक सम्यग्दृष्टियों में असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि स्वामी लिखते हैं कि - उपशम सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। भा. स. गा. 265 स. सि. 2/3, भा. सं. गा. 266 ध. 1/1,1,1/144 गा. 216, गो. जी. का. गा. 26,650 पं. सं. प्रा. 1/165 स. सि. 1/7/30 स. सि. 1/8 षटखण्डागम 1/1,1 सू. 147 134 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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