________________ प्रदान करना है वह व्यवहार सम्यक्त्व है।' इसी प्रकार की परिभाषाओं में आचार्य मास्वामी ने लिखा कि - तत्त्वों के अर्थ का जैसा स्वरूप बताया है वैसा का वैसा श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। न यहाँ व्यवहार सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताने में लगभग सभी आचार्य सामान्य से शब्द परिवर्तन के साथ समान मत को प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि प्रत्येक आचार्य देव, पान गरु तत्त्व. द्रव्य, पदार्थ आदि पर श्रद्धान करने को सम्यग्दर्शन स्वीकार करते हैं। यहाँ पर सम्यक्त्व लक्ष्य है और आप्त, आगम और पदार्थादि का श्रद्धान करना लक्षण है। अब निश्चय सम्यग्दर्शन का लक्षण करते हुए आचार्य लिखते हैं कि - आप्त, आगम, सात तत्त्व, नौ पदार्थ इनमें से सिर्फ आत्मतत्त्व के स्वरूप का जैसा का तैसा श्रद्धान करना ही निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है। आचार्य निश्चय सम्यक्त्व का स्वरूप प्ररूपित करते हुए कहते हैं कि - ज्ञेय और ज्ञाता इन दोनों की यथारूप प्रतीति निश्चय सम्यक्त्व का लक्षण है। इसमें ज्ञेय भी आत्मा है और ज्ञाता भी आत्मा है, ऐसे ही जहाँ दोनों एक हो जाते हैं ऐसी प्रतीति अर्थात् रुचि, विश्वास होता है वही निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है। इसी प्रकार का स्वरूप जयसेन स्वामी लिखते हैं कि - उन भूतार्थरूप से जाने गये जीवादि नौ पदार्थों का शुद्धात्मा से भिन्न करके सम्यक् अवलोकन करना निश्चय सम्यक्त्व कहलाता है। यहाँ आचार्य महाराज सम्यक्त्व को दो भागों में विभक्त नहीं कर रहे हैं अपितु वे तो सर्वप्रथम नव पदार्थों के श्रद्धान को व्यवहार सम्यक्त्व रूप कहकर उसको और अन्तरंग में जाने की प्रेरणा दे रहे हैं। नव पदार्थों में भी मुख्य रूप से परम उपादेय जीव पदार्थ ही है। जो नव पदार्थों के स्वरूप से अच्छी तरह से परिचित है क्या वह जीव पदार्थ से परिचित नहीं होगा? अवश्य ही होगा। इन नव में से एक जीव पदार्थ पर अपनी श्रद्धा केन्द्रित कर लेना ही निश्चय सम्यक्त्व है। व्यवहार सम्यक्त्व के द्वारा ही जी. 561 पं. का. ता. वृ. 107/169, द. पा. गा. 19, पं. सं. प्रा. 1/59, ध. 1/1,1,1,4/गा. 96, गो. स. सा. वृ. 155/220, पु. सि. उ. 22 त. सू. 1/2 प्र. सा. त. प्र. 242 स. सा. / ता. वृ. 155 131 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org