________________ से विचार व्यक्त करते हैं कि - जो सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ देव में, व्रतों में, शास्त्रों तत्त्वों में, ये ऐसे ही हैं' ऐसे अस्तित्व भाव से युक्त चित्त हो तो उसे आस्तिक्य भाव से युक्त कहा जाता है। इस प्रकार ये चार गुण सम्यग्दृष्टि जीव में नियम से पाये ही जाते हैं। सम्यग्दष्टि जीव के अन्तस् में ये गुण स्वयमेव ही उत्पन्न हो जाते हैं। सम्यग्दर्शन के अङ्ग जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि के उपर्युक्त चार गुण बताये गये हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शन को और अधिक विशुद्ध बनाने में आठों अङ्गों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। प्रत्येक आचार्य ने सम्यग्दर्शन के आठ ही अङ्ग स्वीकार किये हैं। इनकी संख्या में किसी भी आचार्य में कोई भी मतभेद नहीं हैं। उन आठ अङ्गों के नामों का उल्लेख करते हुए आचार्य वट्टकेर स्वामी लिखते हैं णिस्संकिद णिक्कंखिद णिव्विदगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ।' अर्थात् नि:शङ्कित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्व के अङ्ग जानने चाहिये। इन आठों का विशेष वर्णन आचार्यों ने बहुत अच्छी प्रकार से किया है जिनमें आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी, आचार्य समन्तभद स्वामी और आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी आदि मुख्यता से अङ्गों के वर्णन करने में प्रसिद्ध हुए हैं। इन अङ्गों की विशेषता बताते हए आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने तो यहाँ तक लिख दिया कि जैसे एक अक्षर से भी कम अशुद्ध मन्त्र सर्प के विष को दूर नहीं कर सकता है उसी प्रकार एक अङ्ग से भी कम सम्यग्दर्शन संसार-परम्परा का नाश करने में असमर्थ होता है। आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने अपने ग्रन्थ रत्नकरण्डक श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन का सबसे अच्छा वर्णन किया है। उन्होंने 45 श्लोकों का पूरा एक अधिकार ही सम्यग्दर्शन का वर्णन करने में लिख दिया। सम्यग्दर्शन वह अंक है जो कई शून्य के गो. जी. का/जी. प्र. 561 मू. गा. 201, स. सि. 6/24, रा. वा. 6/24/1, व. श्रा. 48, प. ध. उ. 479-480 र. श्रा. श्लोक 21 129 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org