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________________ यह संवेग तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध कराने वाली 16 भावनाओं में से भी एक का आचार्य कहते हैं कि - दर्शन विशुद्धि के साथ यदि एक संवेग भाव ही रहे तो उससे भी तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध हो जाता है। अनुकम्पा - अनुकम्पा दया का ही दूसरा नाम है। कोई भी धर्महीन अथवा दु:खित व्यक्ति है उसकी समस्या का उचित तरीके से समाधान अथवा सहायता करना ही अनकम्पा है। आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी अनुकम्पा के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि - प्यासे को या भूखे को या दु:खित किसी भी प्राणी को देखकर जो स्पष्टतः दुःखित मन होकर दया परिणाम के द्वारा उनकी सेवादि को स्वीकार करता है, उस पुरुष के प्रत्यक्षीभूत शुभोपयोगरूप यह दया अथवा अनुकम्पा कहलाती है।' अनुकम्पा के स्वरूप को और अधिक गहराई से व्यक्त करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि अनुग्रह से दयाई चित्त वाले के दूसरे की पीड़ा को अपनी ही मानने का जो भाव होता है, उसे अनुकम्पा कहते हैं। पं. राजमल्ल जी ने सभी संसार के प्राणियों पर अनुग्रह, मैत्रीभाव, माध्यस्थ भाव और शल्यरहित वृत्ति को अनुकम्पा माना है। आचार्यों का अनुकम्पा के अर्थ से तात्पर्य समझ में यह आता है कि किसी भी प्रकार से की गई कृपा अथवा दया अनुकम्पा है जो उस प्रकार के दु:ख से दु:खित है। आचार्यों ने तो माध्यस्थभाव को भी अनुकम्पा में ग्रहण कर लिया है। सभी आचार्य अनुकम्पा को एक अपेक्षा से वात्सल्य का ही एक रूप कहना चाहते हैं। जिस प्रकार वात्सल्य में किसी भी प्रकार की स्वार्थबुद्धि से विलग होकर बस कृपापात्र प्राणी पर दया करता ही है उसी को ही आचार्य अनुकम्पा स्वीकार कर रहे हैं। भगवती आराधना में आचार्य महाराज ने तो अनुकम्पा के तीन भेद किये हैं जो इस प्रकार हैं - धर्मानुकम्पा, मिश्रानुकम्पा और सर्वानुकम्पा।' अब इन तीनों के स्वरूप को संक्षेप से आचार्य व्यक्त करते हैं 1. धर्मानुकम्पा - जिनके असंयम का त्याग है, मान-अपमान आदि अवस्थाओं में समान हैं, जो वैराग्य से युक्त होते हैं, क्षमादि दसों धर्मों में तत्पर रहते हैं, ऐसे निर्ग्रन्थ संयमी पं. का. 137, प्र. सा. ता. वृ. 268 स. सि. 6/12 पं. ध. उ. 449 भ. आ. वि. 1834/1643/3 127 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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