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________________ नहीं है, ऐसे अभिनिवेश को अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं। इसी प्रकार तत्त्वार्थसार के प्रणेता अजानिक की परिभाषा व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि जिस मत में हित और अहित का बिल्कल ही विवेचन नहीं है। 'पशुवध धर्म है' इस प्रकार अहित में प्रवृत्ति कराने का उपदेश है वह अज्ञानिक मिथ्यात्व है। भावसंग्रह के रचयिता एवं जीवकाण्डकार दोनों आचार्य मस्करीपूरण जिसको मंखलीगोशाल भी कहते हैं वह अज्ञानिक मिथ्यादृष्टि था ऐसा मानते हैं। मस्करी' भगवान् महावीर के समवसारण से बिना दिव्यध्वनि सुने ही बाहर आ गया था और हिताहित रूप विवेक ज्ञान प्रकट नहीं हो सका इसीलिये वह अज्ञानिक मिथ्यादृष्टि कहा गया है। वह सभी से कहता है कि देखो मैं ग्यारह अंगों का पाठी था. परन्तु भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि नहीं खिरी परन्तु इन्द्रभूति गौतम जो वेदों का ज्ञानी था और जैनागम का अज्ञानी था, उसके आते ही दिव्यध्वनि खिर गई। इससे सिद्ध होता है कि मुक्ति अज्ञान से होती है ज्ञान से नहीं। जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार के कारण विचार और विवेक शून्यता से जो श्रद्धान उत्पन्न होता है वह अज्ञान मिथ्यात्व कहलाता है। मिथ्यात्व की भेद सम्पत्ति अपार है, क्योंकि मिथ्यात्व को धारण करने वाले जीवों की संख्या भी शेष सभी गुणस्थानों के कुल योग से भी अनन्त गुणी है। एक इन्द्रिय जीव से लेकर असैनी पञ्चेन्द्रिय जीव तक सभी प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान के अन्तर्गत आते हैं, और सैनी पञ्चेन्द्रिय जीवों का भी बहुभाग मिथ्यादृष्टि ही है। गुणस्थान भावों को तथा कर्म के उदय को ही दृष्टि में रखता है। अतः बहिरंग क्रिया से जीव चाहे सभ्य, विवेकी, ज्ञानी, सदाचारी, सद्गृहस्थ या द्रव्यलिंगी मुनि ही क्यों न हो, यदि मिथ्यात्व कर्म का उदय है तो उसका प्रथम गुणस्थान ही माना जायेगा। यह अन्तरंग परिणामों का ही विश्लेषण करता है। जब तक प्रथम गुणस्थान में है, तब तक जीव मोक्षमार्गी नहीं कहा जाता। जैन आगम में इनके लिये अन्य भी निन्दापरक शब्द प्रयक्त किये गये हैं। जैसे-पापश्रमण, राज्यसेवक, ज्ञानमूढ, इक्षुपुष्पसमनट श्रमण, पाप व तिर्यगालय भाजन चलशव, मोक्षमार्गभ्रष्ट, ज्ञानश्रुत एवं बालचरण, पापमोहितमति नारद, ध. 8/3,6/204 त. सा. 5/7/278 भा. स. गा. 162 113 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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