________________ अपना मत प्रस्तुत करते हैं-पदार्थों के एक ही धर्म का निश्चय करके अन्य सम्पूर्ण धर्मों का निषेध करने में जो तत्पर है वह मिथ्या एकान्त कहा गया है। एकान्त मिथ्यात्व में वह एकपक्षी हो जाता है और अनेकान्त का ज्ञान न होने के कारण स्वयं ही सबके परिहास का पात्र बनता है, क्योंकि जब भी वह एक पक्ष के आधार पर कथन किया करता है तो उसमें 'ही' का दुराग्रह भी सम्मिलित हो जाता है। इसी कारण से वह अन्त में स्ववचन बाधित हो जाता है। एकान्त मिथ्यात्व के अनेकों मतों का सम्यक् प्रकार से आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने 'आप्तमीमांसा' नामक ग्रन्थ में खण्डन करके अनेकान्तवाद स्याद्वाद का मण्डन किया है। स्याद्वाद में अपेक्षा सहित कथन होने के कारण ही कभी भी दोष को प्राप्त नहीं होता है। ... बौद्ध दर्शन का अनुसरण करने वालों को एकान्त मिथ्यादृष्टि कहा गया है आचार्य देवसेन स्वामी और आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी के द्वारा। विनय मिथ्यात्व - इसका स्वरूप प्रकट करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि 'सब देवताओं और सब मतों को एक समान मानना ही विनय मिथ्यात्व कहलाता है।' यहाँ आचार्य का यह अभिप्राय है कि 'चाहे सच्चा देव हो या मिथ्या देव हो, चाहे सच्चे मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करने वाले शास्त्र हों या इसी संसार सागर में और अधिक भ्रमण कराने वाले शास्त्र हों, उन सबकी वे एक समान विनय करते हैं इसीलिये वे विनय मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि वैनयिक मिथ्यादृष्टि तापसी होते हैं। वे अज्ञानी होते हैं और विवेक रहित होते हैं तथा निर्गुण लोगों की भी विनय किया करते हैं। जो लोग गुण-अवगुण को नहीं जानते, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों को समझना चाहिये कि यदि विनय करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है तो उनको गधा, चाण्डाल आदि सबकी विनय करनी चाहिये परन्तु वे लोग उनकी विनय नहीं करते।' संशय मिथ्यात्व - ‘विरुद्ध अनेक पक्षों का अवगाहन करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं" ऐसा न्यायदीपिकाकार का अभिप्राय है। जैसे यह स्थाणु है या पुरुष है। इसी स्वरूप स. भ. त. 73/11 स. सि. 8/1 भा. सं. गाथा 73,74 न्यायदीपिका 1/9/9/5 111 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org