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________________ कत ग्रन्थ 'भावसंग्रह' में गुणस्थानों का बृहद् एवं विशद् विवेचन किया है। अन्य शास्त्रों में भी कुछ मात्रा में गुणस्थानों का विवेचन दृष्टिगोचर होता है। आगे की शताब्दियों में इन्हीं ग्रन्थों की टीका लिखने का युग प्रारम्भ हुआ और अनेक आचार्यों ने संस्कृत, तमिल, कन्नड, अपभ्रंश एवं अन्य प्रादेशिक भाषाओं में गणस्थानों को जनसामान्य का विषय बनाने का प्रयास किया। यह तो स्पष्ट है कि गणस्थानों की आधारशिला सर्वज्ञकथित होने से आज तक पूर्ववत् ही है, इसमें त्रुटि की संभावनायें भी नहीं है। निरुक्ति-निर्वचन गुणा ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा जीवस्वभावविशेषाः स्थानं पुनः अत्र तेषां शुद्धि-विशुद्धि प्रकर्षाप्रकर्षकृतः स्वरूपभेद: तिष्ठन्त्यस्मिन् गुणा इति कृत्वा गुणानां स्थानं गुणस्थानम्। अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप जीव के स्वभाव विशेष को गुण और जहाँ इन गुणों की शुद्धि-विशुद्धि के प्रकर्ष स्वरूप और अप्रकर्ष स्वरूप के भेदों में स्थित रहते हैं वह स्थान कहा है। ऐसा स्वरूप करके गुणों के स्थान को गुणस्थान कहा गया है। लक्षण - गुणस्थान की परिभाषा कहते हए आचार्य लिखते हैं कि जेहिं दु लक्खिज्जते उदयादिसु संभवेहिं भावेहि। जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं॥ अर्थात् कर्मों (मोहनीय) की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के निमित्त से उत्पन्न होने वाले जिन परिणामों से जीव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदर्शियों ने 'गुणस्थान' इस संज्ञा से निर्दिष्ट किया है। मोह और योग (मन, वचन, काय) की प्रवृत्ति के कारण जीव के अन्तरंग परिणामों की तारतम्य अवस्था का नाम ही गुणस्थान है। जीव के अन्तरंग परिणामों की तरतमता को गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं का द्योतक है। जीव के परिणाम सदा पञ्चसंग्रह प्रा. 1/3, गो. जी. का. गाथा 8, ध. पु. 1 गो. जी. का. गाथा 3 104 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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