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________________ पाकत में ही लिखे गये। अध्यात्म का रहस्य भी प्राकृत भाषा की सरलता में ही समायोजित किया गया अथवा संस्कृत का प्रयोग किया भी तो सरल संस्कृत में ही किया गया जैसे आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने समाधिशतक में। वर्तमान में गुणस्थान का अध्ययन बहुत विरल होता जा रहा है। गुणस्थानों को सही तरीके से समझाने वालों की कमी होने से आज के विद्यार्थी भी मात्र औपचारिकता , पर्ण करना चाहते हैं। यही कारण है कि विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम निर्धारित करते समय गणस्थान विषयक ग्रन्थों से परहेज कर पुराणों आदि को प्राथमिकता दी जाने लगी। वस्तुतः विद्यार्थियों को विद्वान् बनाने के लिए गुणस्थान का सम्यक्तया अवबोध कराना अनिवार्य है। वाक्पटुता को ही सम्प्रति विद्वत्ता माना जाता है, परन्तु सैद्धान्तिक ज्ञान के बिना यह मात्र मनोरञ्जन ही है। मुख्यतया गुणस्थान का ज्ञान विद्वत्ता को शुद्ध करने का काम करता है। प्राकृत एवं अपभ्रंश जैसी भाषायें वर्तमान में अपने अंश रूप में ही अत्यन्त गवेषणा के बाद दिखाई दे पाती हैं। ये वे भाषायें हैं, जिनको प्राचीन आचार्यों का पूर्ण समर्थन रहा, जो सैकड़ों वर्षों तक भारतवर्ष की राजभाषा रहीं, जिसमें सम्पूर्ण प्रामाणिक, आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक रहस्यों को सुनियोजित किया गया। गुणस्थान विषयक प्राचीनतम साहित्य का अन्वेषण करने पर यह तथ्य सामने आता है कि गुणस्थानों का विकास कालक्रम से न होकर पूर्व में ही सर्वज्ञवाणी में हो चुका था। इस चिन्तन का आधार यह है कि प्राचीन आचार्यों के ग्रन्थों से लेकर अर्वाचीन सभी करणानुयोग विषयक ग्रन्थों में से किसी में भी गुणस्थानों की संख्या एवं स्वरूप में हानि अथवा वृद्धिरूप विकास दृष्टिगोचर नहीं होता। जैसा विकास व्रतों की मान्यताओं में हुआ, जैसा विकास आध्यात्मिक क्षेत्र के गम्भीर तत्त्वों में हुआ, जैसा विकास सप्तभंगी में हुआ, जैसा विकास अष्टमूलगुणों में हुआ, जैसा विकास नयपरिकल्पना में हुआ, वैसा कुछ भी गुणस्थानों में न हो सका। यही कारण है कि गुणस्थान कल्पना का महल न होकर वास्तविकता की पृष्ठभूमि है। आचार्यों ने भी इस वास्तविकता को अनादिकालीन सत्य की तरह ही स्वीकार किया। 102 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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