________________ परवर्ती आचार्यों ने की है, वह उनके कथन की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह उपस्थित करती है। हमारी श्रद्धा और विश्वास चाहे कुछ भी हो, किन्तु तर्कबुद्धि और गवेषणात्मक दृष्टि से तो ऐसा प्रतीत होता है कि आगम साहित्य की विषय-वस्तु को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया। यह कहना कि आचारांग के आगे प्रत्येक अंग ग्रन्थ की श्लोक संख्या एक दूसरे से क्रमशः द्विगुणित रही थी अथवा चौदहवें पूर्व की विषय-वस्तु इतनी थी कि उसे चौदह हाथियों के बराबर स्याही से लिखा जा सकता था, आस्था की वस्तु हो सकती है, किन्तु बुद्धिगम्य नहीं है। अन्त में, विद्वानों से मेरी यह अपेक्षा है कि वे आगमों और विशेष रूप से अर्द्धमागधी आगमों का अध्ययन श्वेताम्बर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी या तेरापंथी दृष्टि से न करें, अपितु इन साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से ऊपर उठकर करें, तभी हम उनके माध्यम से जैनधर्म के प्राचीन स्वरूप का यथार्थ दर्शन कर सकेंगें और प्रामाणिक रूप से यह भी समझ सकेंगें कि कालक्रम में उनमें कैसे और क्या परिवर्तन हुए हैं। आज आवश्यकता है पं. बेचरदासजी जैसी निष्पक्ष एवं तटस्थ बुद्धि से उनके अध्ययन की, अन्यथा दिगम्बर को उसमें वस्त्रसम्बन्धी उल्लेख प्रक्षेप लगेंगे, तो श्वेताम्बर सारे वस्त्रपात्र के उल्लेखों को महावीरकालीन मानने लगेंगे और दोनों ही यह नहीं समझ सकेंगे कि वस्त्र–पात्र का क्रमिक विकास किन परिस्थितियों में और कैसे हुआ है ? इस सम्बन्ध में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि ये इनके अध्ययन की कुंजियाँ हैं। शौरसेनी और अर्द्धमागधी आगमों का तुलनात्मक अध्ययन भी उनमें निहित सत्य को यर्थाथ रूप से आलोकित कर सकेगा। आशा है, युवा-विद्वान् मेरी इस प्रार्थना पर ध्यान देंगे। ... जैन आगम-साहित्य का परिचय देने के उद्देश्य से सम्प्रतिकाल में अनेक प्रयत्न हुए हैं। सर्वप्रथम पाश्चात्य विद्वानों में हर्मन जैकोबी, शुबिंग, विण्टरनित्ज आदि ने अपनी भूमिकाओं एवं स्वतन्त्र निबन्धों में इस पर प्रकाश डाला है। इस दिशा में अंग्रेजी में सर्वप्रथम हीरालाल रसिकलाल कापडिया ने "A History of the Cononical Literature of the Jainas" नामक पुस्तक लिखी। यह ग्रन्थ अत्यन्त शोधपरक दृष्टि से लिखा गया और प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 47 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org