________________ कर सके, शेष चार पूर्वो का केवल शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर सके / इसका फलितार्थ यही है कि पाटलिपुत्र की वाचना में एकादश अंगों का ही संकलन और सम्पादन हुआ था। किसी भी चतुर्दश पूर्वविद् की उपस्थिति नहीं होने से दृष्टिवाद के संकलन एवं सम्पादन का कार्य नहीं किया जा सका। उपांग साहित्य के अनेक ग्रन्थ, जैसे- प्रज्ञापना आदि, छेदसूत्रों में आचारदशा, कल्प, व्यवहार आदि तथा चूलिकासूत्रों में नन्दी, अनुयोगद्वार आदि- ये सभी परवर्ती कृति होने से इस वाचना में सम्मिलित नहीं किये गये होंगे। यद्यपि आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थ पाटलिपुत्र की वाचना के पूर्व के हैं, किन्तु इस वाचना में इनका क्या किया गया, यह जानकारी प्राप्त नहीं है। हो सकता है कि सभी साधु-साध्वियों के लिए इनका स्वाध्याय आवश्यक होने के कारण इनके विस्मृत होने का प्रश्न ही न उठा हो। ___पाटलीपुत्र वांचना के बाद दूसरी वाचना उड़ीसा के कुमारी पर्वत (खण्डगिरि) पर खारवेल के राज्यकाल में हुई थी। इस वाचना के सम्बन्ध में मात्र इतना ही ज्ञात है कि इसमें भी श्रुत को सुव्यस्थित करने का प्रयत्न किया गया था। सम्भव है कि इस वाचना में ई.पू. प्रथम शती से पूर्व रचित ग्रन्थों के संकलन और सम्पादन का कोई प्रयत्न किया गया हो। : जहाँ तक माथुरी वाचना का प्रश्न है, इतना तो निश्चित है कि उसमें ई.सन् की चौथी शती तक के रचित सभी ग्रन्थों में संकलन एवं सम्पादन का प्रयत्न किया गया होगा। इस वाचना के कार्य के सन्दर्भ में जो सूचना मिलती है, उसमें इस वाचना में कालिकसत्रों को व्यवस्थित करने का निर्देश है। नन्दिसूत्र में कालिंकसूत्र को अंगबाह्य, आवश्यक व्यतिरिक्त सूत्रों का ही एक भाग बताया गया है। कालिकसूत्रों के अन्तर्गत उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दाश्रुत, कल्प, व्यवहार, निशीथ तथा वर्तमान में उपांग के नाम से अभिहित अनेक ग्रन्थ आते हैं। हो सकता है कि अंगसूत्रों की जो पाटलीपुत्र वाचना चली आ रही थी वह मथुरा में मान्य रही हो, किन्तु उपांगों में से कुछ को तथा कल्प आदि छेदसूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया हो, किन्तु यापनीय ग्रन्थों की टीकाओं में जो माथुरी वाचना के आगमों के उद्धरण मिलते हैं, उन पर जो शौरसेनी प्रभाव दिखता है, उससे ऐसा लगता है कि माथुरी वाचना प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श /35 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org