________________ ग्रन्थ वल्लभी वाचना के समय ही अपने वर्तमान स्वरूप में आया होगा। जहाँ तक प्रश्नव्याकरणदशा का प्रश्न है, इतना निश्चित है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु न केवल स्थानांग में उल्लिखित विषय-वस्तु से भिन्न है, अपितु नन्दी और समवायांग की उल्लिखित विषय-वस्तु से भी भिन्न है। प्रश्नव्याकरण की वर्तमान आस्रव और संवर द्वार वाली विषय-वस्तु का सर्वप्रथम निर्देश नन्दीचूर्णि में मिलता है। इससे यह फलित होता है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरणसूत्र नन्दी के पश्चात ई.सन् की पांचवी-छठवीं शती के मध्य ही कभी निर्मित हुआ है। इतना तो निश्चित है कि नन्दी के रचयिता देववाचक के सामने यह ग्रन्थ अपने वर्तमान स्वरूप में नहीं था, किन्तु ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृद्दशा और अनुत्तरौपपातिकदशा में जो परिवर्तन हुए थे, वे नन्दीसूत्रकार के पूर्व हो चुके थे, क्योंकि वे उनके इस परिवर्तित स्वरूप का विवरण देते हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपने एक स्वतन्त्र लेख में की है, जो 'जैन आगम-साहित्य', सम्पादक डॉ. के. आर. चन्द्रा, अहमदाबाद, में प्रकाशित है। इसी प्रकार, जब हम उपांग साहित्य की ओर आते हैं, तो उसमें रायपसेणिसुत्त में राजा पसेणीय द्वारा आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में जो प्रश्न उठाये गये हैं, उनका विवरण हमें पालित्रिपिटक में भी उपलब्ध होता है। इससे यह फलित होता है कि औपपातिक का यह अंश कम से कम पालित्रिपिटक जितना प्राचीन तो है ही। जीवाजीवाभिगम के रचनाकाल को निश्चित रूप से बता पाना तो कठिन है, किन्तु इसकी विषय-वस्तु के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वह ग्रन्थ ई.पू. की रचना होनी चाहिए। उपांग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को तो स्पष्टतः आर्य श्याम की रचना माना जाता है। आर्य श्याम का आचार्यकाल वी.नि.सं. 335-376 के मध्य माना जाता है। अतः इसका रचनाकाल ई.पू. द्वितीय शताब्दी के लगभग निश्चित होता है। इसी प्रकार, उपांग वर्ग के अन्तर्गत वर्णित चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति- तीन प्रज्ञप्तियाँ भी प्राचीन ही हैं। वर्तमान में चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दिखाई देता है। किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति में ज्योतिष सम्बन्धी जो चर्चा है, वह वेदांग ज्योतिष के समान है, इससे इसकी प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 27 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org