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________________ है कि सभी अंग आगम अपने वर्तमान स्वरूप में गणधरों की रचना है और उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन, परिवर्द्धन, प्रक्षेप या विलोप नहीं हुआ है। किन्तु इतना निश्चित है कि कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर आगम-साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ कसायपाहुडसुत्त भी ईस्वी सन् की तीसरी-चौथी शताब्दी से प्राचीन नहीं है। उसके पश्चात षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवतीआराधना, तिलोयपण्णत्ति, पिण्डछेदशास्त्र और आवश्यक (प्रतिक्रमण) के अतिरिक्त इन सभी ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त आदि की उपस्थिति से यह फलित होता है कि ये सभी ग्रन्थ पांचवी शती के पश्चात् के हैं। दिगम्बर आवश्यक (प्रतिक्रमण) एवं पिण्डछेदशास्त्र का आधार भी क्रमशः श्वेताम्बर मान्य आवश्यक और कल्प-व्यवहार, निशीथ आदि छेदसूत्र ही रहे हैं। उनके प्रतिक्रमण सूत्र में भी वर्तमान सूत्रकृतांग के तेईस एवं ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययनों का विवरण है तथा पिण्डछेदशास्त्र में जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त देने का निर्देश है। ये यही सिद्ध करते हैं कि प्राकृत आगम साहित्य में अर्धमागधी आगम ही प्राचीनतम हैं, चाहे उनकी अन्तिम वाचना पांचवी शती के उत्तरार्ध (ई.सन् 453) में ही सम्पन्न क्यों न हुई हो? इस प्रकार जहाँ तक आगमों के रचनाकाल का प्रश्न है उसे ई.पू. पांचवी शताब्दी से ईसा से पांचवी शताब्दी तक लगभग एक हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में व्याप्त माना जा सकता है, क्योंकि उपलब्ध आगमों में सभी एक काल की रचना नहीं हैं। आगमों के सन्दर्भ में, और विशेष रूप से अंग आगमों के सम्बन्ध में, परम्परागत मान्यता तो यही है कि वे गणधरों द्वारा रचित होने के कारण ई.पू. पांचवी शताब्दी की रचना हैं, किन्तु दूसरी ओर कुछ विद्वान् उन्हें वलभी में संकलित एवं सम्पादित किये जाने के कारण ईसा की पांचवी शती की रचना मान लेते हैं। मेरी दृष्टि में ये दोनों ही मत समीचीन नहीं हैं। देवर्धि के संकलन, सम्पाद एवं ताड़पत्रों पर लेखनकाल को उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता | अंग आगम तो प्राचीन ही हैं। ईसा पूर्व चौथी शती में पाटलीपुत्र की वाचना में जिन द्वादश अंगों की वाचना हुई थी, वे निश्चित रूप से उसके पूर्व ही बने होंगे। यह सत्य है कि आगमों में देवर्धि की वाचना के समय अथवा उसके बाद भी कुछ प्रक्षेप हुए हों, किन्तु उन प्रक्षेपों के आधार पर सभी अंग आगमों का रचनाकाल ई.सन् की पांचवी प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004262
Book TitlePrakrit ka Jain Agam Sahitya Ek Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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