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________________ आनन्दघन के संग सुजस ही मिले जब, तब आनन्दसम भयो 'सुजस', पारस संग लोहा जो फरसत कंचन होत की ताके कस। खीर नीर निर्मिल रहे आनन्द जस, सुमति सरवी के संग भयो है, एकरस भाव खपाई सुजस विलास भये, सिद्ध स्वरूप तीथे घसमस।। इस प्रकार उनमें पराकाष्ठा की गुणानुरागिता के दर्शन होते हैं। दोनों अध्यात्मयोगी के मिलनज्योत पर जितना लिखें, उतना कम है। पर विस्तार होने का भय होने से इतना ही पर्याप्त है। "सुयश आनन्द ना मिलनने महाज्योति जगावी जे। विबुध जन अंतर प्रकटो, अभिलाषा हमारी छे।।" इतने बड़े विद्वान् होने के बाद भी दोनों के बीच में जो आत्मीयता के दर्शन होते हैं, वह उनकी गुणांनुरागिता एवं विनय का प्रत्यक्ष उदाहरण है। उदारता या उदार दृष्टि उन्होंने अपने ग्रंथों में परदर्शनकारों को भी सम्मानित शब्दों से संबोधित किया है एवं अन्य दर्शनकारों के मन्तव्यों को भी माननीय मानकर समुल्लेखित किये हैं। उपाध्याय यशोविजय के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता उनका उदारवादी दृष्टिकोण है। वे दुराग्रहों से मुक्त और सत्य के जिज्ञासु थे। उन्होंने दिगम्बराचार्य समंतभद्रकृत 'अष्टसहस्री', पतंजलिकृत 'योगसूत्र', मम्मटकृत, 'काव्यप्रकाश', जानकीनाथ शर्मा कृत 'न्याय सिद्धान्त मञ्जरी' इत्यादि ग्रंथों पर वृत्तियाँ लिखी तथा योगवासिष्ठ, उपनिषद्, श्रीमद्भगवदगीता में से आधार दिये हैं। इस प्रकार के उदाहरण हैं, जिनमें यशोविजय की उदारता परिलक्षित होती है। श्रुतभक्ति उपाध्याय यशोविजय की श्रुतभक्ति भी अनुपम थी। वे दिन-रात श्रुतसागर में ही गोता लगाते रहते। यशोविजय ने तर्क और न्याय का गहरा अभ्यास किया था। इनके जैसा समर्थ तार्किक को मल्लवादी सूरिकृत द्वादसार नयचक्र जैसे ग्रंथ पढ़ने की प्रबल इच्छा हो, यह स्वाभाविक है। परन्तु यह ग्रंथ इन्हें उपलब्ध नहीं हुआ। बहुत समय बाद पाटण में सिंहवादी गणि द्वारा नयचक्र पर अठारह हजार श्लोकों में लिखी हुई टीका की एक हस्तप्रति मिली। यह हस्तप्रति जीर्ण-शीर्ण हालत में थी और थोड़े दिनों के लिए ही मिली थी। यशोविजय ने विचार किया कि मूलग्रंथ मिलता नहीं है। यह टीका भी नष्ट हो गई तो फिर कुछ नहीं रहेगा, इसलिए हस्तप्रति तैयार कर लेनी चाहिए। परन्तु इतने कम दिनों में यह काम कैसे संभव हो? अपने गुरु महाराज को यह बात कही। समुदाय के साधुओं में भी बात हुई। नयविजय, यशोविजय, जयसोमविजय, लाभविजय, कीर्तिरत्न गणि, तत्त्वविजय, रविविजय इस प्रकार सात मुनिभगवंतों ने मिलकर अठारह हजार श्लोकों की हस्तप्रति की नकल तैयार कर ली। यह विरल उदाहरण उनकी श्रुतभक्ति की सुन्दर प्रतीति कराता है। श्रुतभक्ति की आराधना के लिए यशोविजय का प्रियमंत्र ‘ऐं नमः' था। यशोविजय महाराज ने स्वयं जो रचना की, उनमें से स्वहस्तलिखित तीस से अधिक हस्तप्रतियां अलग-अलग भण्डारों से मिली हैं। प्राचीन समय के एक ही लेखक की स्वयं के हाथों से लिखी इतनी प्रतियों का मिलना अपने आप में अत्यन्त विरल और गौरवपूर्ण उदाहरण है। 13 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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