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________________ एक ही ऐसा आशारूपी दीप है, जो दुनिया को प्रलय रूपी अंधकार में मार्ग दिखा सकेगा, वह आशारूपी दीप है-तत्त्वज्ञान। विज्ञान के साथ अगर तत्त्वज्ञान जुड़ जाए तो विज्ञान विनाश के स्थान पर विकास की दिशा में बढ़ेगा। विज्ञान की शक्ति पर तत्त्वज्ञान का अंकुश होगा, तभी विश्वभर में सुख-शांति रहेगी। तत्त्वज्ञान अमृततुल्य रसायन है। वही इस विश्व को असंतोष और अशांति की व्याधि से मुक्त कर सकता है। विज्ञान के कारण भौतिक साधनों की बड़ी उन्नति हुई है। उनके कारण मानव को बाह्य सुख तो प्राप्त हुआ है लेकिन आध्यात्मिक दुनिया में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। आज विज्ञान की जितनी उपासना हो रही है, उतनी ही तत्त्वज्ञान की उपेक्षा हो रही है। यही कारण है कि मानव को आत्मशांति प्राप्त नहीं हो रही है। तत्त्वज्ञान के कारण ऐसी शांति प्राप्त होती है जिससे संसार के सारे / पाप, ताप, संताप दूर होते हैं तथा शीतलता प्राप्त होती है। पाश्चात्त्य देशों में सम्पत्ति खूब है, भौतिक सुख खूब हैं, फिर भी वहां दुर्घटना अधिक होती है, पागलपन का प्रमाण भी वहां अधिक है और अनिद्रा के रोग भी वहां बड़े पैमाने पर दिखाई देते हैं। इसका कारण केवल एक ही है और वह है तत्त्वज्ञान का अभाव। जिसे अध्यात्म का ज्ञान होता है, तत्त्वज्ञान की समझ होती है, वह मानव किसी भी परिस्थिति में मन में समाधान रख सकता है, संतोष धारण कर सकता है। फिर उसे किसी भी बात का दुःख नहीं होता। जीवन में श्वासोच्छ्वास के समान ही तत्त्वज्ञान की आवश्यकता है। इसलिए मानवीय प्रगति .. अगर सच्चे अर्थ में हो तो विज्ञान और तत्त्वज्ञान का साथ आवश्यक है। विज्ञान और तत्त्वज्ञान प्रगति . के रथ के दो पहिए हैं। रथ चलाने के लिए जिस प्रकार दो पहिए आवश्यक होते हैं, उसी प्रकार प्रगति के कदम सही दिशा में बढ़ाने के लिए विज्ञान और तत्त्वज्ञान का साथ अत्यावश्यक है। विज्ञान रूपी मोटर के लिए तत्त्वज्ञान रूपी स्टियरिंग-व्हील अनिवार्य है। इसलिए वैज्ञानिक प्रगति के साथ तात्विक प्रगति होना भी आवश्यक है। तत्त्वज्ञान के यथार्थ ज्ञान से मानव का पदार्थ विषयक संशय दूर होता है। संशय दूर होने से तत्त्व पर श्रद्धा होती है। शुद्ध श्रद्धा होने से मानव पाप नहीं करता है तब आत्मा संपृत होता है। संपृत आत्मा तप के द्वारा संचित कर्मों का क्षय करके क्रमशः तथा समस्त कर्मों का पूर्ण क्षय करके अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। संक्षेप में तत्त्व को संपूज्य, सश्रद्धेय स्वीकार करने का सदाचार हमारी संस्कृति में सदा से सनातन रहा है। तत्त्व को बुद्धि से तौलकर हृदय को शिरोधार्य कर हमारी संस्कृति चलती आ रही है और तत्त्व जगत् के प्रकाश को प्रसारित करती रही है। तत्त्व और सत्व इनको अवधारित करने की हमारी उज्ज्वल परम्परा प्राचीन रही है। पुरातन युग में तत्त्व की अवधारणाएँ सर्वोपरी सिद्ध हो रही हैं, प्रसिद्ध बनी हैं। इसलिए प्राचीनकाल से अद्यावधि तत्त्वमीमांसा की महत्ताएँ, मान्यताएँ जीवित रही हैं। इसलिए तृतीय अध्याय में उपाध्याय यशोविजय के तत्त्वमीमांसा का चिंतन एवं विवरण आलेखित किया है। लोकवाद भी तत्त्व के महत्त्व को शिरोधार्य करता चल रहा है। इसी तत्त्व को द्रव्य गुण से गौरवान्वित बनाने का श्रेय इच्छानुयोग में उपार्जित किया है। जो तत्त्व अस्तित्ववाद से आशान्वित हुआ है, उसमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय आदि घटित हुए हैं। यही मात्र 572 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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