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________________ शैली की दृष्टि से उनकी कृतियां खण्डनात्मक, प्रतिपादनात्मक एवं समन्वयात्मक है। उनके ग्रंथों की . एक विशेषता यह है कि अन्यकर्तृक ग्रंथों की तुलना में उनके ग्रंथ कठिन थे, क्योंकि दार्शनिक विषय उनके ग्रंथों का मुख्य अभिधेय था और शब्द संकोच एवं अर्थ गाम्भीर्य यह उनकी सभी कृति की सर्व पंक्तियों की विशेषता थी। उपाध्यायजी की उपलब्ध कृतियों का भी पूर्ण योग्यता के साथ पूर्ण निष्ठा एवं परिश्रम से अध्ययन में आये तो जैन आगम के, जैन तर्क के पूर्ण ज्ञाता बन सकते हैं। ऐसी विरल शक्ति एवं पुण्योदय कोई विरल विभूति के ललाट में ही लिखी हुई है। यह शक्ति वास्तव में सद्गुरु कृपा, जन्मान्तर का तेजस्वी ज्ञान, संस्कार एवं सरस्वती का मिला हुआ वरदान-इस त्रिवेणी संगम की आभारी है। परमात्मा की वाणी को अक्षरदेह में गूंथने वाले जैन साहित्य जो विश्व की महान् आध्यात्मिक सम्पत्ति एवं अनमोल धरोहर है, इन रत्नों के खजाने में जितनी विविधता है, उतनी मोहकता है, वो दुनिया के किसी चक्रवर्ती सम्राट के खजाने में भी भाग्य से ही देखने को मिलती है। वस्तु जितनी कीमती एवं उच्च होती है, उतनी उनको प्राप्त करने की योग्यता भी उच्च कक्षा की होनी चाहिए। जैन साहित्य की उपासना सिर्फ विद्वत्ता के शिखर को प्राप्त करने के लिए नहीं है, महापंडित की कीर्ति एवं यश को पाने के लिए नहीं है वरन् सत्य की निर्मल सरिता में असत्य की मलिनता को रूपान्तरित करने के लिए नहीं है, किन्तु आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए सद्गुण रूपी पुष्प, वैराग्य एवं अध्यात्म के संस्कारों को आत्मसात करने के लिए हैं। जाज्वल्यमान व्यक्तित्व वाले अनेक महान् पूर्वाचार्यों ने जैन साहित्य को शृंगार एवं अलंकारों से सुशोभित करने में कोई कमी नहीं रखी है। वो ही पूर्वाचार्यों, भगवंतों की परम्परा का अनुसरण करते हुए उपाध्यायजी ने जैन साहित्य की वृद्धि में बहुमूल्य योगदान दिया है। वो युगों-युगों तक अविस्मरणीय * बना रहेगा। न्याय के क्षेत्र में उनका विशिष्ट योगदान रहा है। उन्होंने रहस्य से अंकित 108 ग्रंथों की रचना की है एवं न्याय खंडन खाद्य सिर्फ 100 गाथा का ग्रंथ था, टीका भी विस्तृत नहीं थी, फिर भी उपाध्यायजी ने बौद्ध न्याय के खंडन के लिए उन्होंने डेढ़-दो लाख श्लोक प्रमाण ग्रंथ की रचना की, तब आश्चर्य होता है कि कितनी असाधारण विद्वत्ता के धनी थे। नव्यन्याय शैली का उपयोग करके उन्होंने जैन शासन में चार चांद लगाये। - कृतियों में जो व्यक्तित्व को झलकाये, वही तो विद्वान् है, यही उपाध्याय यशोविजय का आदर्श रहा। समस्त दर्शनों के अवगाहन करने पर भी अपने अस्तित्व को जैन दर्शन में दीप्तिवान एवं शोभास्पद रखा। अनेकान्तवाद उनका प्राण रहा। उपाध्याय यशोविजय विद्या वाङ्मय को वसुधा पर कल्पतरु बनकर अन्त तक कोविद रहे। अनेक विरोधों के वैमनस्य में न डूबकर समन्वयवाद का शंख बजाते रहे। उपाध्यायजी की लेखनी ने कपिल, पतंजली जैसे अन्य दार्शनिकों के मतों का भी अवलम्बन किया है। यह उनकी उदारता का प्रतीक है। ज्ञान के आशय से इतने गम्भीर और गौरवान थे कि अन्य दार्शनिकों के मन्तव्यों को ससम्मान समादर दिया। दार्शनिक प्रश्नों के प्रत्युत्तर में अपना प्रखर पाण्डित्य प्रदर्शित करते हुए ज्ञानपूर्णता से छलके नहीं, न किसी को झकझोरा अपितु सभी विषयों का विद्वत्तापूर्वक अध्ययन करते हुए अपने सम्पूर्ण जीवन की कृतियों में, वाङ्मयी रचना में उन्होंने रोचक सन्दर्भ उपस्थित किये। 569 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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