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________________ . सारांश उपाध्याय यशोविजय के दार्शनिक चिन्तन का वैशिष्ट्य वैशिष्ट्य को विलक्षित करने का विशेषाधिकार उपाध्यायजी के वाङ्मय में विविध विषयों से व्यवस्थित रहा हुआ है। उपाध्यायजी का व्यक्तित्व, जीवनसृजन एक विद्दवर परम्परा में विशिष्टता से सम्मानित है। उनकी मान्यताएँ मनीषाजन्य मस्तिष्क की स्फूर्णाओं से शोभनीय और हृदयग्राही हैं, तत्त्वों के विवेचन के लिए पर्याप्त हैं। . ___ उनकी दार्शनिक विशेषताएँ, सैद्धान्तिक संज्ञाएँ और पारम्परिक परिभाषाएँ उपाध्यायजी को उच्चतम श्रेणी में स्थिर करने की है। ऐसी उत्तमता आदर्श रूप में वाङ्मय धारा से निराबाध, निष्कलंक-नित्य प्रवाहित करने वाले प्रज्ञा-पुरुष यशोविजय सर्वजन हितकारी, उपकारी, उपदेशक पर आध्यात्मिक योगी परिलक्षित हुए हैं। विद्वत्ता स्वयं इनकी अनुरागिनी बनकर जीवन जीवित रखने की शुभाशंषा चाहती रही है जिन्होंने संस्कृत, प्राकृत को परमोच्च भाव से शिरोधार्य कर गद्य-पद्य रूप से अनेक ग्रंथों में प्राथमिकता दी। संस्कृत प्राकृत की धारा में एकदम धवलपन धुले हुए धुरन्धर दार्शनिक रूप में दिव्य दर्शन की पहेलियां प्रस्तुत करने में अपनी आत्म-प्रतिभा को पुरस्कृत रखा है। सिद्धान्तवादिता को साहचर्य भाव से सहयोगी सखारूप से स्वीकृत करते हुए अप्रतिम सिद्धान्तवादी रूप में स्पष्ट हुए हैं। दार्शनिकता को दाक्षिण्यता से दायित्वपूर्ण दर्शित करके अपनी सुदृढ़दर्शिता का परिचय दिया है। शताब्दियों तक शोध के बोध में सुपात्रों को मार्गदर्शन देने में सिद्धहस्त सक्षम साहित्यकार रूप में उपस्थित हुए हैं। अपनी उपस्थिति को वाङ्मय वसुमति पर विशेषता से व्यक्त करने का कौशल उनके दर्शन ग्रंथों में दिव्य चमत्कार प्रगटित कर रहा है। ऐसी अलौकिक क्षमता के धनी और समता के शिरोमणि रत्न और प्रशमता के प्रज्ञापुरुष रूप में अपना आत्म-परिचय विस्तृत करने में एक विशेष विद्वान् महाश्रमण हुए हैं। उन्होंने श्रामणीय भाव को साहित्य के धरातल पर शोभनीय बनाने का जो श्रेयस्कर सुपथ चुना है, यह चयन प्रक्रिया शताब्दियों तक इनके सुयश की गाथाएँ गाती रहेंगी। विद्या गौरव में गीत जन-जन को सुनाती रहेगी। इस विद्या प्रिय पुरुष ने श्रमण संस्कृति की सेवा में जीवन को समर्पित कर अपनी धन्यता-मान्यता जो मनोरम बनाई है, वो मनुष्यों के मन को प्रभावित करती होगी। समय स्वयं इनकी सराहना करता समाज को यशोविजय दर्शन पथ का दिग्दर्शन देता रहेगा। ऐसे उपाध्यायजी को मेरा शत्-शत् नमन सदा होता रहे और मैं उपाध्यायजी के प्रज्ञान प्रमोद में प्रमेय के पुष्पों का चयन करती उनको वरमाला पहनाती रहूँ, यही मेरा उपाध्याय यशोविजय के प्रति हृदय का उद्गार है। जो भ्रांतों के भ्रमिकों को भूले हुए को भव विरह पथ का दर्शन देते रहे हैं, उन उपाध्यायजी की वैशिष्ट्य कला का मैं क्या वर्णन कर सकती हूँ। वे स्वयं अपनी वर्णता वे वरेण्य हैं, विशिष्ट हैं, व्याख्यायित हैं और वाचित हैं। अतः मेरी वाच्यकला और लेखनकला उपाध्यायजी के चरणों में समर्पित है। 561 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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