________________ शून्यवाद के प्रमुख ग्रंथ मध्यमकारिका में नागार्जुन ने लिखा है न सद् नासद् न सदसत् चानुभयात्मकम्, चतुष्कोटि विनिमुक्तं तत्वं माध्यमिका विदु।। 20 अर्थात् परमतत्त्व न सत् है, न असत् है, न सत्-असत् है और न सत्-असत् दोनों है। यही बात विधिपरक शैली में जैनाचार्य ने भी कही है यदेवततदेवावत् यदेवैकं तदेवानेक। यदेवसत् तदेवासत् यदेवनित्यं तदेवानित्यम्।।। अर्थात् जो ततरूप है वही अततरूप भी है, जो एक है वही अनेक भी है, जो सत् है वही असत् भी है, जो नित्य है, वही अनित्य भी है। तात्पर्य यह है कि अनेकान्तवाद और शून्यवाद की पृष्ठभूमि में बहुत कुछ समरूपता है। उपाध्याय यशोविजय ने महावीर स्तव ग्रंथ में कहा है-हे वीतराग! इस जगत् में त्रिगुणात्मक प्रधान प्रवृत्ति में परस्पर विरोधी गुणों को स्वीकार करने वाले सांख्य, विविध आकारवाली बुद्धि का निरूपण करने वाले बौद्ध, उसी प्रकार अनेक प्रकार में चित्रवर्णवाला, चित्ररूप को स्वीकारने वाले नैयायिक तथा वैशेषिक आपके मत की निन्दा कर सकते हैं। अर्थात् उनको अपना मत मान्य रखना है, तो वे अनेकान्त का अपलाप नहीं कर सकते। मीमांसक : प्रभाकर मिश्र की अनेकान्त की स्वीकृति उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि मीमांसकों के सिद्धान्त की मंजिल भी अनेकान्त की नींव पर ही खड़ी है। वे कहते हैं प्रत्यक्षं मितिमात्रंशे मेयांशे तद्विलक्षणम्, गुरुज्ञानं वदन्नेकं, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत / / जो ज्ञान स्वयं की अपेक्षा प्रत्यक्ष होता है, वही ज्ञान ज्ञेय की अपेक्षा परोक्ष भी होता है। इस प्रकार स्वीकार करने वाले प्रभाकर मिश्र को अनेकान्त का सहारा लेना ही पड़ता है। विषय और इन्द्रिय के सन्निकर्ष होने पर “यह घट है"-यहाँ ज्ञान ज्ञानत्व, ज्ञातृत्व और ज्ञेयत्व की अपेक्षा से प्रत्यक्ष ही है, परन्तु अनुमान में तीनों का प्रत्यक्ष संभव नहीं है। जैसे मैं घट की अनुमीति करता हूँ, यहाँ ज्ञान तथा ज्ञाता की अपेक्षा प्रत्यक्ष होने पर भी वह ज्ञान विषय की अपेक्षा से परोक्ष भी है। प्रत्यक्षत्व और परोक्षत्व का विरोध होने पर भी दो ज्ञान की कल्पना करना उचित नहीं है, अतः ज्ञातृत्व और ज्ञानत्व की अपेक्षा से प्रत्यक्ष होने पर भी वही ज्ञान ज्ञेयत्व की अपेक्षा से परोक्ष भी होता है, ऐसा प्रभाकर मिश्र स्वीकार करते हैं। अतः एक ही वस्तु में दो विरोधी गुण को अपेक्षाभेद से स्वीकार करना, यही तो स्याद्वाद है। साथ ही उपाध्याय यशोविजयजी कुमारिल भट्ट के मत की व्याख्या करते हुए कहते हैं जातिव्यक्तयात्मकं वस्तु, वदन्ननुभवोचितम्। भट्टो वाऽपि मुरारिवां, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत।।" अर्थात् वस्तु जाति और व्यक्ति उभयात्मक है। इस प्रकार अनुभवगम्य बात स्वीकार करने वाले कुमारिल भट्ट भी अनेकान्त का अपलाप नहीं कर सकते हैं, क्योंकि अनेकान्त का विरोध करने पर इनको मान्य वस्तु सामान्य विशेषात्मक है-यह बात असिद्ध हो जाएगी। 556 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org