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________________ विरोध है अर्थात् जहाँ किसी प्रकार का हेतु दोष है, वहाँ अविनाभाव नहीं हो सकता और जहाँ अविनाभाव है, वहाँ कोई भी हेतु दोष नहीं रहता। संक्षेप में उपाध्यायजी कहते हैं कि हेतु तीन या पाँच अर्थों वाला होने पर अथवा न होने पर भी अविनाभाव से प्रयुक्त होने पर साध्य को सिद्ध करने में समर्थ होते हैं। यह तीन या पाँच रूप तो अविनाभाव का ही विस्तार है। अतः हेतु का एक ही रूप मानना चाहिए, वह है-अविनाभाव। नैयायिक महर्षि गौतम ने अनुमान के तीन भेदों का उल्लेख मात्र किया है 1. पूर्ववत-जहाँ कारण द्वारा कार्य का अनुमान होता है, वह पूर्ववत है, जैसे-मेघोच्छन्न आकाश को देखकर वर्षा का अनुमान करना पूर्ववत कहलाता है। 2. शेषवत-जहाँ कार्य द्वारा कारण का अनुमान किया जाता है, वह शेषवत है। जैसे नदी के वेगपूर्ण प्रवाह को देखकर यह अनुमान करना की वर्षा हो चुकी है। 3. सामान्यतोदृष्टि-कार्यकारण भाव से निरपेक्ष जिन दो वस्तुओं का नियत सम्बन्ध पाया जाता है, उनमें से एक-दूसरे का अनुमान करना ही सामान्यतोदृष्टि अनुमान है। जैसे बिना गमन के व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकता। इन तीन भेदों के साथ ही न्याय दर्शन के ग्रंथों में स्वार्थ-परार्थ इन दो भेदों का उल्लेख भी प्राप्त होता है। परार्थानुमान को प्रयुक्त अवयवों में से न्याय परम्परा पंचावयव परम्परा को स्वीकार करती है। इसी बात की पुष्टि उपाध्याय रचित दर्शनिक ग्रंथ जैन तर्क परिभाषा में देखने को मिलती है। वहाँ अनुमान के दो भेद बताये गये हैं साधनात्साध्यविज्ञानम् अनुमानम्। तद् द्विविधं स्वार्टी परार्थ च।। - हेतु के द्वारा साध्य का ज्ञान होना अनुमान है। वो दो प्रकार का है-स्वार्थानुमान और परार्थानुमान। . स्वार्थानुमान-हेतु का ग्रहण और साध्य-साधन के बीच के सम्बन्ध का स्मरण-इन दोनों के द्वारा अपने साध्य का जो ज्ञान हो, उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। जैसे धूम को प्रत्यक्ष देखने वाला और उसमें रही हुई वह्नि की व्याप्ति का स्मरण करने वाले प्ररूप पर्वतो वह्निमान ऐसा जो अनुमान करता है, वह स्वार्थानुमान है। परार्थानुमान-पक्ष और हेतु का जिसमें उल्लेख किया जाता है, उसे परार्थानुमान कहते हैं। उपमान लक्षण-प्रसिद्ध अर्थ सादृश्य से अप्रसिद्ध भी सिद्ध करना उपमान प्रमाण है। जैसे गौ के समान गवय होता है। प्रसिद्ध अर्थ के सादृश्य से साध्य की सिद्धि उपमान है। यह न्याय दर्शन का उपमान सूत्र है। यहाँ भी यतः पद का अध्याहार करना चाहिए। अतएव प्रसिद्ध गौ के साधर्म्य सादृश्य से गवय में रहने वाले अप्रसिद्ध संज्ञा-संज्ञि सम्बन्ध का साधन प्रतिपति यतः जिस सादृश्य ज्ञान से होती है, वह सादृश्यज्ञान उपमान प्रमाण कहलाता है। आगम प्रमाण-आप्त में उपदेश को शब्द आगम प्रमाण कहते हैं। इस तरह चार प्रकार का प्रमाण होता है। इस तरह बौद्ध प्रत्यक्ष एवं अनुमान को मानता है। नैयायिक प्रत्यक्ष (अनुमान, उपमान एवं आगम) को भी प्रमाण मानता है। 544 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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