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________________ तत्पश्चात् उन्होंने प्रमाण सामान्य का लक्षण देते हुए कहा, “अज्ञातार्थज्ञापक प्रमाणम्' अर्थात् ज्ञात का प्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है। तात्पर्य यह हुआ कि अनधिगत विषय वाला ज्ञान प्रमाण है। धर्मकीर्ति ने अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण कहा है। अविसंवाद को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा-प्रमाण द्वारा जिस अर्थ का ज्ञान होता है, उसमें अर्थक्रिया करने का विषय नहीं बन सकता। अन्यत्र धर्मकीर्ति ने दिगनाग के प्रमाणलक्षण का ही अक्षरशः समर्थन किया है। मनोरथनंदी ने इस प्रमाणलक्षण की व्याख्या करते हुए लिखा है- 'अर्थ' पद द्वारा द्विचन्द्र आदि ज्ञानों की प्रमाणता का निरास किया गया है। अज्ञात पद के द्वारा कल्पनाजन्य ज्ञानों की प्रमाणता को अस्वीकार किया गया है। संक्षिप्त में बौद्ध सम्मत प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्त तत्र बुद्धताम् / अर्थात् कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्पक तथा भ्रान्ति से रहित अभ्रान्त ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष चार प्रकार का है1. इन्द्रिय प्रत्यक्ष, 2. मानस प्रत्यक्ष, 3. स्वसंवेदन प्रत्यक्ष और 4. योग विज्ञान प्रत्यक्ष। अनुमान बौद्ध के अनुसार पक्षधर्म, सपक्षसत्व तथा विपक्षसत्व-इन तीनों रूप वाले लिंग से होने वाला सा 'य का ज्ञान अनुमान कहलाता है। बौद्ध कहता है कि तुम लोग सिर्फ एक ही स्वरूप की चर्चा करते हो, वो उचित नहीं है, क्योंकि इसमें हेतु की पूर्ण पहचान नहीं होती है। अतः उपरोक्त तीन धर्मों को मानना जरूरी है, क्योंकि हेत्वाभास का निरसन करने के लिए उक्त तीनों धर्मों का होना आवश्यक है। बौद्ध इसके तीन स्वरूप मानते हैं। वैज्ञानिक इसके पांच स्वरूप मानता है। . उक्त मान्यता का निरसन करते हुए उपाध्याय यशोविजय अपने दार्शनिक ग्रंथ जैन तर्क भाषा में कहते हैं न तु त्रि लक्षणकादि / . अर्थात् उपाध्यायजी के अनुसार त्रिलक्षण मानने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि पक्षसत्व रहित हेतु से भी सत्व की प्रतीति हो सकती है। जैसे अब शकट नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि अभी कृतिका नक्षत्र का उदय है। यहाँ कृतिका नक्षत्र का उदय हेतु है, पर वो तो वर्तमानकाल लक्षी है और पक्ष के रूप में तो भविष्यकाल है। अब इसमें पखसत्व न होते हुए भी हेतु से अभ्रान्त अनुभूति होती है। वैसे ही प्रसिद्ध उदाहरण देखें-कल सोमवार है, क्योंकि आज रविवार है। यहाँ पक्ष है-काल, एवं हेतु है-रविवार। रविवार तो आज है ही, उसमें आवतीकाल रूप भविष्यकाल पक्ष में न होते हुए भी उनमें उक्त अनुमति अनुभव सिद्ध है। यह तो सद्हेतु में काल की अपेक्षा से भी दिखाते हैं-आकाश में सूर्य उदित हो चुका है, क्योंकि धरती पर प्रकाश छा गया है। यहाँ प्रकाशत्व हेतु है तो आकाशरूप पक्ष में रहा हुआ नहीं है, फिर भी इनमें उक्त अनुमति सिद्ध होती है। ठीक वैसे ही आकाश में चन्द्र उदित हो चुका है। जलचन्द्र (जल में चन्द्र का प्रतिबिम्ब) दिखता है। यहाँ भी आकाश रूप पक्ष में जलचन्द्रात्मक हेतु नहीं है फिर भी अनुमति 542 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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