SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 618
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * आचार्य उमास्वाति के शब्दों में 'कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः' अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों का आत्यन्तिक एवं निरन्वय विनाश ही मोक्ष है। तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने यह भी कहा है सम्यग-दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः।।" सम्यग ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को मोक्ष कहते हैं। गीता में इन्हें भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग एवं कर्ममार्ग अथवा प्रणिपात, परिप्रश्न एवं सेवा कहा जा सकता है। हिन्दू परम्परा में परमसत्ता के तीन रूप प्रतिपादित हैं-सत्यं, शिवं और सुन्दरम्। रत्नत्रयी से भी इनकी तुलना की जा सकती है। उपनिषद् इन्हें श्रवण, मनन और निदिध्यासन की अभिधा से अभिहित करता है। जैन दर्शन में मुक्त जीव को सिद्ध कहा जाता है। सिद्ध का अर्थ है-प्रकृष्ट शुक्लध्यान रूपी अग्नि से जिन्होंने अपने संचित कर्मों को पूर्णतः जला दिया। भगवती सूत्र में मुक्त जीवों के स्वरूप का प्रतिपादन आठ पर्यायवाची नामों से किया है। ये आठ नाम हैं-सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, पारगत, परम्परागत, परिनिवृत्त, अन्तःकृत और सर्व दुःखप्रहाण। आचार्य अभयदेवसूरि ने भगवती सूत्र की वृति में इनका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। औपपातिक सूत्र में मुक्त जीवों के आठ पर्यायवाची नाम हैं, जिनमें चार हैं-उन्मुक्त, कर्मकवच, अजर, अमर और असंग। सिद्धति य बुद्धति य पारगयति य परंपरगयति य। उन्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य।। सिद्ध सर्व कर्म मुक्त होते हैं अतः उनके. क्षायिक गुणों में कोई भेद नहीं होता। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार मुक्त जीव अरूपी, ज्ञान, दर्शन में सदा उपयुक्त निरूपम, सुख सम्पन्न '. संसार समुद्र से निस्तीर्ण, भवप्रपंच से श्रेष्ठ गति को प्राप्त है। मुक्त जीव और मोक्ष में तत्त्वतः अभेद है अतः मुक्त जीवों का स्वरूप ही मोक्ष का स्वरूप है। अमोक्षवादी मत की समीक्षा - अमोक्षवादी इस प्रकार कहते हैं- “आत्मा को कर्म का कोई बन्ध नहीं होता है, तो फिर मोक्ष की बात कैसे हो सकती है, अर्थात् मोक्ष नहीं है।" वे गलत तर्क करके पूछते हैं कि, “आत्मा कर्म का सम्बन्ध हुआ, तो पहले आत्मा थी, उसके बाद कर्म उत्पन्न हुआ, या पहले कर्म, उसके बाद जीव उत्पन्न हुआ, या दोनों साथ-साथ ही उत्पन्न होते हैं। - ये तीनों बातें संभव नहीं हो सकती हैं, क्योंकि पहले आत्मा की उत्पत्ति मानें और फिर कर्म की उत्पत्ति तो विशुद्ध आत्मा को कर्म से बंधन का कोई प्रयोजन नहीं। पुनः आत्मा के अभाव में पहले कर्म भी उत्पन्न नहीं हो सकते। अगर कहें आत्मा तथा कर्म दोनों एक साथ उत्पन्न हुए तो यह भी असंगत है। इस प्रकार कर्मबंध अव्यवस्थित ठहरता है। जैनदर्शन की मान्यता है कि जीव और कर्म का संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है। ___इसके लिए अमोक्षवादी यह तर्क देते हैं कि यदि जीव और कर्म के सम्बन्ध को अनादि माना जाए, तो जीव को कभी मोक्ष होगा ही नहीं, क्योंकि जो वस्तु अनादि होती है, वह अनन्त भी होती है। जैसे जीव और आकाश का सम्बन्ध अनादि हो, तो उसे अनन्त भी स्वीकारना पड़ेगा। उसी प्रकार जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि हो, तो वह अनन्तकाल तक रहेगा, तब फिर मोक्ष की संभावना कहाँ से हो? 536 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy