________________ आचार्य हरिभद्रसूरि ने अध्यात्म, भावना आदि पाँच योग बताये हैं और उपाध्यायजी ने स्थानादि पाँच योग बताये हैं। अध्यात्मादि पाँच योगों के साथ स्थानादि पाँच योगों का सम्बन्ध है। देव सेवा, जप एवं तत्त्वचिंतनरूप आदि अध्यात्मयोग का समावेश स्थान ऊर्ण एवं अर्थयोग में होता है। त्रीजा आध्यानयोग आलंबन योग में समाविष्ट होता है। वृतिसंक्षय का अनालम्बन योग में समावेश होता है। इस तरह अध्यात्मादि पाँच योगों, स्थानादियोगों में अंतर्भाव हो जाती है। वो चारित्रवान् आत्मा को ही होती है। इसलिए स्थानादि योगों की प्रवृत्ति भी देशविरती एवं सर्वविरती चारित्रवान आत्मा को ही होती है, ऐसा सिद्ध होता है। योग की प्रियता विद्वान् से लेकर आबालगोपाल तक सभी सामान्य लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि इस दुषमकाल में भी योग की सिद्धि जिसको प्राप्त हुई है, उनका योगफल का लाभ रूप परम शांत स्वरूप दिखाई देता है। जैसे कि महायोगी आनंदघनजी, चिदानंदजी, देवचंद्रजी, यशोविजयजी आदि योगसिद्ध हैं। उन्होंने जो शांति एवं समता की अनुभूति की है, वैसी शांति करोड़पति, अरबपति, राजा, महाराजा भी अनुभव नहीं कर सकते। जब पंचम आरे में ऐसे योगी परम आनंद का अनुभव करते हैं, उससे यह समझना चाहिए कि चतुर्थ तृतीय आरे में तो परमात्मा ऋषभदेव के शासन में तो योग की साफल्यता सर्वथा सिद्ध है तथा उस समय में उनमें योग का फल प्रत्यक्ष दिखाई देता था। जैसे कि विष्णुकुमार, मुनिराज योगबल धर्मद्वेषी नमुचि को शिक्षा कर जैन संघ की योग्य समय में सेवा कर कर्म की महानिर्जरा की. यह बात जगत् के प्रत्येक व्यक्ति को मालूम है तथा अनार्य भी योग की सिद्धि का प्रभाव, जानते हैं। योग का जो विशेष फल आगम में बताया है, यह बात आवश्यक नियुक्ति में इस प्रकार मिलती है योगियों के शरीर का मैल मनुष्य के रोग का नाश करता है तथा योगियों के कफ, थूक, प्रसव, स्वेद भी लोक में पीड़ा दूर करने में औषध हैं। उसी से योगियों की उन शक्तियों को लब्धि नाम से पुकारते हैं। इस प्रकार योग के अभ्यास से अनेक लब्धियाँ, सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, ऐसा आगम में, सिद्धान्त में आप्तपुरुषों ने समझाया है। इसी कारण से भावयोगी में दिखता यह योग का माहात्म्य पृथिव्यादि भूत समुदाय में से मात्र उत्पन्न होता है। यह तो बिल्कुल सिद्ध नहीं होता है, कारण कि यह माहात्म्य भूतों से उत्पन्न होता है। ऐसा मानें तो भूत संघात से भिन्न स्वभाव करने वाला कोई ज्ञात नहीं होने से तो जगत् की जो विचित्रता दिखाई देती है, वह कैसे सिद्ध होगी? आत्मा, कर्म बन्धन, कर्ममुक्ति, संसार भ्रमण आदि परिणाम भूत से भिन्न आत्मा हो तो ही सिद्ध होती है। इसके द्वारा चार्वाकमत नष्ट हुआ।" योग का माहात्म्य उपाध्याय यशोविजय ने योग के माहात्म्य का उल्लेख सुन्दर भावों से किया। योग ही उत्तम चिंतामणि है, श्रेष्ठ कल्पवृक्ष है। योग ही सर्व धर्मों में प्रधान है तथा योग अणिमादि सर्व सिद्धियों का स्थान है। योग जन्मबीज के लिए अग्नि समान है तथा जरा अवस्था के लिए व्याधि समान है तथा दुःख का राज्यक्षमा है और मृत्यु का भी मृत्यु है। योगरूप कवच जिन आत्माओं ने धारण कर लिया, उनके लिए कामदेव के तीक्ष्ण शस्त्र भी निष्फल हो जाते हैं, अर्थात् योगी के चित्त को चंचल करने की शक्ति कामदेव के शस्त्रों में भी नहीं है। 531 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org