________________ अर्थात् बौद्धों की यह मान्यता तर्कसंगत नहीं है। आत्मा को क्षणिक मानने से किये हुए कार्य की हानि और नहीं किये हुए कार्य में फल की प्राप्ति होगी, जैसे-परीक्षा देने वाला विद्यार्थी, पास होने वाला एवं परिणाम प्राप्त करने वाला-तीनों विद्यार्थी भिन्न-भिन्न होंगे। इससे व्यवहार नहीं चल सकेगा। उसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में भी असंगति आएगी। फिर कर्म करने वाला एक, और फल भुगतने वाला दूसरा होगा। यह एक प्रकार की असंगति ही होगी। विशेषावश्यक भाष्य में भी कहा है-परदेश में गया हुआ कोई व्यक्ति स्वदेश की घटनाओं का स्मरण करता है। अतः उसे नष्ट नहीं माना जा सकता अन्यथा वह पूर्व की घटनाओं का स्मरण कैसे करेगा? पूर्व जन्म का स्मरण करने वाले व्यक्ति को भी सर्वथा नष्ट नहीं माना जा सकता है। बौद्ध दार्शनिक कहते हैं कि आत्मा को नित्य मानने पर उसमें अर्थक्रिया नहीं घट सकती है। इसका समाधान करते हुए उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि नानाकार्यं करणस्वाभाव्ये च विरुध्यते। स्यादवादनिर्वेशेन नित्यत्वेऽर्थक्रिया न हि।। __ अर्थात् अनेक कार्यों को क्रम से करने का आत्मा का स्वभाव है। स्याद्वाद शैली में आत्मा को कथंचित नित्य और कथंचित् अनित्य मानने पर नित्यत्व में अर्थक्रिया का विरोध नहीं रहता है। जैन दर्शन आत्मा को द्रव्य से नित्य और पर्याय से अनित्य मानता है। बौद्ध दार्शनिकों का कहना है कि आत्मा को नित्य मानने से उस पर राग उत्पन्न होता है। वस्तु क्षणिक हो तो उस पर राग उत्पन्न नहीं होता है। आसक्ति से तृष्णा, मोह, लालसा आदि भावों का जन्म होता है, इसलिए संक्लेश बढ़ता है। दूसरी तरफ आत्मा को क्षणिक मानने से उसके प्रति प्रेम की निवृत्ति होती है। इससे आसक्ति घटती है। बौद्ध दर्शन की इस दलील में तथ्य नहीं है। * उनके मत की समीक्षा करते हुए उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि ध्रवेक्षणेऽपि न प्रेम निवृतमनुपप्लवात्। गाह्याकार इव ज्ञाने गुणस्तन्नात्र दर्शने।। अर्थात् आत्मा को नित्य, अनादि, अनंत मानने से उसके प्रति जो प्रेम होता है, वह संक्लेश उत्पन्न करे, इस प्रकार का अप्रशस्त राग नहीं है, प्रशस्त राग है। बौद्ध दर्शन में ज्ञानधारा के आकार जैसे निवृत हो जाते हैं, उसी प्रकार जीव का आत्मा के लिए प्रेम की ज्ञानदशा उच्च होने पर निवृत हो जाता है। उच्च आत्मिक दशा प्राप्त होने पर निर्वाण या मोक्ष. के लिए भी प्रेम नहीं रहता है। आत्मा को एकान्त क्षणिक मानने में कोई लाभ नहीं है। आत्मा को अनित्य मानने से संसार की अनवस्था उत्पन्न हो जाएगी। कोई व्यक्ति गुनाह करके भी इन्कार कर देगा कि मैंने गुनाह नहीं किया है, क्योंकि गुनाह करे उससे पहले तो उसकी स्वयं की आत्मा नष्ट हो गई थी। आत्मा, जो स्वतः उत्पन्न होती है और स्वतः नष्ट होती है, उसके लिए शुभ-अशुभ कर्मबंध की कोई बात नहीं होगी। इसलिए उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि नित्य, सत्, चित् और आनन्द पद को प्राप्त करने की इच्छा वालों को एकान्त अनित्यवाद या क्षणिकवाद त्यागने योग्य है, ऐसा अध्यात्मसार में कहा गया है। तस्मादिदमपि त्याज्यमनित्यत्वस्यद दर्शनम्। नित्यसत्यनिदानंदपसंसर्ग मिच्छता।। 526 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org