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________________ ज्ञान को भी नानाभाव वाला कहकर विभक्ति में भी अविभक्त रहने वाला ऐसा सत्वमय नानाभावों से युक्त होता हुआ भी स्वयं में सत्ववान् है। इस प्रकार सत् सम्बन्धी विचारणाएँ, विवेचनाएँ जो मिली हैं, वे सभी उपयुक्त हैं और उचित हैं, क्योंकि सत् के बिना कोई भी स्वयं के अस्तित्व का आविर्भाव नहीं कर सकता है। अतः आविर्भाव के लिए और अस्तित्व के लिए सत् की सत्ता को समयोचित स्वीकार कर लिया जाता है, वह पदार्थ भी सत्ववान गिना जाता है और व्यक्ति भी सत्ववान कहलाता है। यह सत् प्रवाह की दृष्टि से अनादि-अनन्त है परन्तु व्यक्ति विशेष की अपेक्षा से अनित्य है, क्योंकि सत् सर्वथा शक्तिमान होता हुआ सापेक्षिक दृष्टि से विवेचित हुआ। उपाध्याय यशोविजय ने अपने दार्शनिक ग्रंथों में सत् विषयक अन्य दर्शन की अवधारणाओं का विस्तृत विवेचन अभिव्यक्त किया है। आत्मा के सन्दर्भ में दार्शनिक जगत् में दृश्य और मूर्त पदार्थ की भांति अदृश्य और अमूर्त पदार्थ की खोज चालू रहो है। अदृश्य एवं अमूर्त के विषय में सबका एकमत होना संभव नहीं है। दृश्य और मूर्त के विषय में भी सब एकमत नहीं हैं, तब फिर अदृश्य और अमूर्त के विषय में सबकी सहमति की आशा कैसे की जा सकती है। ___आत्मा के अस्तित्व और नास्तित्व का अभ्युपगम हजारों वर्षों से चला आ रहा है। भारतीय दर्शनों में श्रमण और ब्राह्मण दोनों परम्पराओं के अनेक आचार्य आत्मा को पौद्गलिक मानते रहे हैं। आत्मा का अस्तित्व प्रायः सभी धर्मों में मान्य होकर भी आत्मा की परिभाषा को शब्दावली में बांधना बड़ा कठिन कार्य है। वस्तुतः आत्मा नाम की वस्तु आँखों से अदृश्य, कानों से अश्राव्य तथा मन से अननुभाव्य होने से परिभाषा करने में अत्यन्त कठिनता महसूस होती है, फिर भी श्रेष्ठ विद्वानों ने विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं। आर्य संस्कृति आत्मवादिता पर अपना अस्तित्व रखती है। यह संस्कृति आत्मा के अस्तित्व को सम्मानित रखने वाली परमात्मवाद की ओर ढलती हुई मिलती है। आत्मवाद, परमात्मवाद, कर्मवाद और लोकवाद-इन सभी का अवगहन, अनुसंधान आत्मवाद ही कर सकता है। अतः आत्मा को सश्रद्धाभाव से स्वीकृत करने में श्रमण संस्कृति ने अग्रेसरता अपनाई है। आत्मतत्त्व सदा से अरूपी रहा है, अगोचर बना है। परोक्ष का रूप धारण करता है फिर भी प्रत्यक्षवत् कार्य करने में कृत्कृत्य मिलेगा। परोक्षता की परम अनुमानिता अधिकृत करती हुई यह आत्मवादिता अभी तक सश्रद्धेय रही है। अतः आत्मवाद को अनेक आचार्यों ने सम्मानित रखा। साहित्य की भूमि पर इसको विस्मृत बनाने में वाङ्मयी धाराएँ प्रवाहित रही हैं। दर्शन जगत् के अगणित अनेक आर्ष पुरुषों ने आत्मवाद की घोषणा करने में उच्चता अपनाई है। संस्कृति का सुपरिचय ही आत्मवाद की उपलब्धियों से है। दार्शनिकता का दिव्य दृष्टिकोण आत्मवाद के अध्यायों से उज्ज्वल है, उल्लिखित है। अतः आत्मवाद को हम स्वीकार कर लेते हैं तो पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष की मान्यताएँ महत्त्वपूर्ण लगती हैं। आत्मवाद से इहलोक और परलोक के ताने-बाने जुड़े हुए हैं, क्योंकि आत्मा का कारकतत्त्व धर्म है। अतः कर्मफल भोक्ता है। इसलिए आत्मवाद के बिना दर्शन जगत् में दार्शनिकता को सम्मान नहीं मिलता है। आ रहा हा 523 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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