________________ महोपाध्याय यशोविजय का रहस्यवाद रहस्यवाद वस्तुतः अर्वाचीन सम्प्रत्यय है। किन्तु रहस्य भावना, रहस्यवाद भारतीय वाङ्मय में प्राचीनकाल से विद्यमान है। रहस्य भावना में साधक की उत्कट जिज्ञासा एवं रुचि का विशेष महत्त्व है, क्योंकि यहाँ साध्य सदैव रहस्यमय रहता है। साधक में रही हुई जिज्ञासावृत्ति, रुचि ही साधक को रहस्यमय साध्य तक पहुंचाती है। इसी कारण भारतीय रहस्यवादी चिन्तकों, विचारकों ने परमतत्त्व के प्रति जिज्ञासा, उत्सुकता, रुचि का साधक में जाग्रत होना अनिवार्य माना है। वास्तव में अज्ञात, अनजान तत्त्व के प्रति जिज्ञासा मानव की चिन्तनशीलता एवं बौद्धिकता का परिणाम है। भारतीय ऋषि-महर्षियों द्वारा व्यक्त और दृश्य देह जगत् के भीतर अव्यक्त, अदृश्य और अरूपी आत्मत्व को खोजने का प्रयास चिरन्तन काल से होता रहा है। साधनाओं, आराधनाओं और भावनाओं के द्वारा अपने घट में ही विराजमान आत्मदेव के साथ तादात्म्य (एकमेक संबंध) स्थापित किया गया है। ये आध्यात्मिक अनुभव जब शब्दों में अभिव्यक्त होते हैं तब उन्हें रहस्य भावना, रहस्य विचार अथवा रहस्य साधना कहा जाता है। इसे आज रहस्यवाद के नाम से अभिहित किया गया है। मूलतः अपनी अन्तःस्फुरित अपरोक्ष अनुभूतियों द्वारा सत्य परमतत्त्व अथवा ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने की प्रवृत्ति ही रहस्यवाद है।' - रहस्यवाद शब्द रहस्य+वाद-इन दो शब्दों के मेल से बना है। रहस्य परमतत्त्व और वाद विचार। इस प्रकार रहस्यवाद का अर्थ है-परम तत्त्व विषयक विचार। आध्यात्मिक दृष्टि से रहस्यवाद का मूलार्थ है-परम तत्त्व संबंधी वह विचार या भावना, जिसमें अन्तःज्ञान (इन्ट्रयुशन) पर आधारित अपरोक्षानुभूति का तत्त्व सन्निहित हो। रहस्य भावना के मूल या बीज को वेदों, उपनिषदों एवं बौद्ध साहित्य में भी खोजा जा सकता है, किन्तु आगे चलकर यह भावना सिद्धों, नाथों तथा मध्ययुगीन सन्त-साहित्य में प्रस्फुटित हुई। वस्तुतः इसे आनन्दघन आदि ने भी अपनाया। उपाध्याय यशोविजय पर भी आनन्दघन आदि की इस शैली का प्रभाव दृष्टिगत होता है। रहस्यात्मक पद्धति मर्मी सन्त कवियों की एक विशिष्ट पद्धति है। इसके अन्तर्गत गूढ़ एवं अनिर्वचनीय आध्यात्मिक अनुभूतियों को अटपटे रूपकों एवं प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। सामान्यतया रहस्यात्मक पद्धति या रहस्यवाद का अभिप्राय है-किसी बात को रहस्यात्मक उक्ति के रूप में प्रस्तुत करना। ऐसी रहस्यात्मक उक्ति वह है, जिसमें गूढार्थ भाव निहित हो, जिसे सामान्य-जन न समझ सके तथा जो पढ़ने पर असंगत एवं बेसिर-पैर का प्रतीत हो, किन्तु गहराई में प्रवेश करने पर उसका गम्भीर अर्थ निकले। मुख्य रूप से इसमें आध्यात्मिक तथ्यों को लोक विपरीत ढंग से वर्णित किया जाता है। लोक जीवन में यह पहेली और लिखित साहित्य में उलटवासी अथवा रहस्यात्मक उक्ति के रूप में प्रसिद्ध है। दृश्य (शरीर) में अदृश्य (शुद्धात्मक तत्त्व) को देखना एवं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करना ही रहस्य भावना अथवा रहस्यवाद है। 'धर्मस्य तत्व निहितं गुहाया' एवं 'ऋषयो मन्त्र द्रष्टाः' जैसे पद रहस्य भावना के प्राचीनतम संकेत हैं। रहस्यवादी विचारधारा में यह माना जाता है कि परमतत्त्व कोई रहस्य है जो इस दृश्य जगत् के मूल में कहीं छिपा है, जिसका दर्शन स्थूल इन्द्रियों से सामान्यतः नहीं होता। इस 478 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org