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________________ पैदा किया था, उससे आज कौन अपरिचित है? उन्होंने भाषादर्शन के एवं भाषारहस्य को खोलकर जो योगदान किया है, वो निम्न है उपाध्यायजी की विशिष्टता है कि वे तर्काधिपति होते हुए भी उन्होंने तर्क एवं सिद्धान्तों को सन्तुलित रखा है। सामान्य से उन्होंने अपने ग्रंथों में खुद के कथन की पुष्टि हेतु प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रंथों का प्रमाण देने में कसर नहीं रखी है। उपाध्याय यशोविजय रचित भाषारहस्य ग्रंथ के नाम से ही पता चलता है कि यह ग्रंथ भाषा की उन ग्रंथियों को सुलझाता होगा, जिनसे अधिकांश जनमानस अपरिचित है। अद्यतन काल में भाषा का ज्ञान साधु भगवंत एवं जन-साधारण के लिए नितान्त आवश्यक है। कोई भी भाषा हो परन्तु वह भाषा सभी प्रकार से विशुद्ध होनी चाहिए, क्योंकि भाषा विशुद्ध परम्परा से मोक्ष. का कारण है। यह भाषा रहस्य का हार्द है। यही बात उपाध्याय यशोविजय ने भाषा रहस्य ग्रन्थ की अवतरणिका में ही कही है। वागगुप्ति अष्टप्रवचनमाता का अंग है। भाषा विशुद्धि का अनभिज्ञ अगर संज्ञादि परिहार से मौन रखे तो भी उसे वागगुप्ति का फल प्राप्त नहीं होता है। अतः भाषा विशुद्धि नितान्त आवश्यक है। इसलिए सावध, निरवद्य, वाच्य, अवाच्य, औत्सर्गिक, आपवादिक, सत्य, असत्य आदि भाषा की विशिष्ट जानकारी हेतु अष्टप्रवचनमाता के आराधकों के लिए उपाध्यायजी का भाषा-दर्शन . संबंधित भाषा रहस्य ग्रंथ गागर में सागर है। ऐसे तो यह ग्रंथ विद्वदभोग्य है। उपाध्यायजी की रहस्यपदांक्ति कृति में रहस्य भरा हुआ ही होता _ है, फिर भी सभी के उपकार हेतु टीकाकार उपाध्याय ने जो हिन्दी में अनुवाद किया है, वह अतीव अनुमोदनीय है, जिसको पाकर वाचक इस अमूल्य पुष्प के सुवास से प्रमुदित बन सकते हैं। - - प्राचीन ग्रंथों को बिलोकर उसमें से घृत निकालकर परिवेषण करने की अपूर्वशक्ति उपाध्यायजी को वरी हुई थी। अतः उन्होंने इस प्रकार अनेकानेक ग्रंथों का सृजन किया था। भाषादर्शनलक्षी उपाध्यायजी का भाषा रहस्य ग्रंथ अनमोल है। उपाध्यायजी ने तत्त्वरत्नाकर, प्रज्ञापनासूत्र, चारित्र की नामस्वरूप दशवैकालिक सूत्र, जिनशासन का अद्वितीय ग्रंथरत्न विशेषावश्यक भाष्य आदि अगाध ग्रंथों का आलोकन करके इस अनमोल ग्रंथ की भेंट दी है। सोने में सुगंध स्वरूप इस भाषा रहस्य ग्रंथ पर स्वोपज्ञ टीका भी है, जो ग्रन्थ के हार्द को प्रस्फुटित करती है। . आगम आदि साहित्य में ऐसी कई बातें हैं, जो बाह्यदृष्टि से विरोधग्रस्त-सी लगती हैं। उपाध्यायजी की विशेषता यह है कि उन बातों को प्रकट करके अपनी तीव्र सूक्ष्मग्राही मेधा द्वारा उनके अन्तःस्थल तक पहुंचकर गम्भीर एवं दुर्बाध ऐसे स्याद्वाद, नय आदि के द्वारा उसका सही अर्थघटन करते हैं। देखिए ___ 'सच्चंतष्भावे च्चिय चउण्हं आराहगतं जं।"185 अर्थात् इस गाथा की स्वोपज्ञ टीका में बताया है कि चारों भाषाओं (सत्य, मृषा, सत्यमृषा एवं असत्यमृषा) का सत्य में अंतर्भाव होगा, तभी चारों भाषाओं में आराधकत्व रहेगा। इसके लिए प्रज्ञापना सूत्र का प्रबल प्रमाण पैदा किया है। इस पाठ का तात्पर्य यह है कि आयुवतपरिणामपूर्वक चारों भाषाओं को बोलने वाला आराधक है। आयुक्त का शास्त्रविहित पद्धति से जिनशासन की अपभ्राजना को दूर करने के प्रयोजन से बोलना, संयमरक्षा आदि के लिए बोलना अर्थ है। 467 32 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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