________________ उभयपक्ष में आती है तथा जो भाषा (मिश्र) सत्य भी होती है और मिथ्या भी होती है, वह उभयपक्ष में आती है तथा जो भाषा न सत्य होती है, न मृषा वह एक भी पक्ष में समाविष्ट नहीं होती है। अतएव वहाँ हम यह नहीं सोच सकते हैं कि यह भाषा सत्य है या मृषा है अतः वे भाषा अपर्याप्त भाषा है। तुलनात्मक दृष्टि से पाश्चात्त्य परम्परा की सत्यापनीय भाषा, गणितीय भाषा एवं परिभाषाएँ पर्याप्त भाषा के समतुल्य मानी जा सकती है, जबकि शेष भाषा व्यवहार अपर्याप्त या अपूर्ण भाषा का ही सूचक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वप्रथम उन्होंने पर्याप्त भाषा की सत्य और असत्य-ऐसी दो कोटियाँ स्थापित की। इसी प्रकार असत्य पर्याप्त भाषा की भी दो कोटियाँ स्थापित की-सत्यमृषा (मिश्र) और असत्य-अमृषा। संक्षेप में भाषा के भेदों को निम्न चार्ट से बता सकते हैं भाषा पर्याप्त अपर्याप्त सत्य असत्य असत्य मित्र सत्यमृषा सत्य मिश्र सत्यमृषा अत्यमृषा अत्यमृषा दूसरी दृष्टि से भी भाषा के भेद भाषा व्यवहारनय निश्चयनय सत्य असत्य सत्यमृषा असत्यमृषा सत्य असत्य इस बात की पुष्टि उपाध्याय यशोविजय ने भाषा रहस्य-ग्रंथ में की है भाषा चउव्विहति य ववहारणया सुअम्मि पन्नाणं। सच्चा मुसत्ति भाषा रुचिहच्चिय हदि णिच्छयओ।।171106 अर्थात् आगम में व्यवहारनय से भाषा के चार भेद हैं और निश्चयनय से भाषा के सत्य और मृषा दो ही भेद हैं। यह प्रसिद्ध ही है। संक्षेप में चार भाषा का वर्णन किया जा रहा है 1. सत्य भाषा, 2. असत्य भाषा, 3. सत्य मृषां, 4. असत्य अमृषा। 1. सत्य भाषा व्यवहारनय से सत्यभाषा लक्षण को बताते हुए कहा है-जब किसी वस्तु के स्वरूप में विवाद हो तब वस्तु के मूल स्वरूप को स्थापित करने की इच्छा से आगम के अनुसार जो बोला जाए, वह सत्य भाषा है-यह व्यवहारनय की परिभाषा है। जैसे कि नैयायिक और नास्तिक जीव के विषय में विवाद करते हैं। नैयायिक कहता है कि जीव एकान्त सद्रुप है, जबकि उसके विरुद्ध नास्तिक कहता है कि 438 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org