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________________ - ही न होगा तब उसमें अव्याप्ति का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होगा। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। अतः शब्दोच्चारण-काल के बाद भिन्न भाषाद्रव्यों में शब्दपरिणाम के नाश की कल्पना करना ही उचित प्रतीत होता है। मगर यह समीचीन इसलिए नहीं है कि विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति से श्री मलधारी हेमचन्द्रसूरि महाराज ने स्पष्ट शब्दों में बता दिया है कि पराघात स्वरूप सम्पूर्ण लोक में भिन्न भाषाद्रव्यों को फैलाने में हेतु होता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि भिन्न भाषाद्रव्य भिन्न भाषाद्रव्य के रूप में ही लोक में फैलते हैं। अतएव तब तक उनमें शब्द का परिणाम भी अवश्य रहता है। उसमें कोई विवाद नहीं है। एवंभूत नय की दृष्टि से भाषण के पूर्वोत्तर काल में भाषा का निषेध शब्दार्थवियोगादिति-वापस यहाँ यह संदेह कि यदि निसर्गकाल के बाद भी भिन्न भाषा द्रव्यों में शब्दपरिणाम विद्यमान हैं तब शब्दोच्चारण काल में ही भाषा भाषारूप हैं, शब्दोच्चारण के पूर्व में और पश्चात् काल में नहीं ऐसा भगवतीसूत्र में बताकर शब्दोच्चारण के पश्चात् काल में भिन्न भाषाद्रव्य में भाषातत्त्व का निषेध क्यों किया गया है? यह तो परस्पर विरुद्ध है। “चोर को कहे चोरी करना और साहूकार को कहे जागते रहना।"-इसलिए निराकृत हो जाता है कि शब्दोच्चारण काल के बाद भाषा शब्द का अर्थ कण्ठ, तालु आदि से शब्दोत्पादक व्यापाररूप अर्थ भिन्न भाषाद्रव्य में नहीं रहता है। अतः क्रियारूप भावभाषा का ही निसर्गोत्तर काल में निषेध है, भाषा परिणामरूप भावभाषा का नहीं-ऐसा हमें प्रतीत होता है, ऐसा प्रकरणवाद श्रीमद् कहते हैं। इस तरह उपाध्याय यशोविजय ने भाषा रहस्य में 12वीं गाथा में ग्रहणादि भाषा भवभाषा का कारण होने से द्रव्यभाषा नहीं है, किन्तु द्रव्यप्रधानता की विवक्षा से ही द्रव्यभाषा है-यह भाष्यमाण भाषा इत्यादि तीन सिद्धान्त की अनुपपत्ति के बल पर सिद्ध किया है और साथ-साथ द्रव्यभाषा के वक्तव्य को प्रकरणकार ने जलांजलि दी है। भावभाषा के लक्षण भावभाषा का निरूपण करते हुए उपाध्याय यशोविजय ने भाषा रहस्य ग्रंथ में बताया है कि उवउताणं भासा णायव्वा एत्थ भावभासति। उवओगो खलु भावो णुवओगो दव्यमिति कहु / / ... अर्थात् उपयोग वाले जीव की भाषा भावभाषा है, यह जानना चाहिए क्योंकि उपयोग ही भाव है, अनुपयोग तो द्रव्य है। यहाँ खाने, पीने, गाने के उपयोग नहीं लेने हैं, किन्तु भावभाषा के प्रसंग में "मुझे यह इस तरह बोलना चाहिए, मैं ऐसा बोलूँगा तभी श्रोता को अर्थज्ञान हो सकेगा।" ऐसा उपयोग प्रणिधान लेना है और इस उपयोग से वक्ता बोले तब उसकी भावभाषा कही जाती है। आशय यह है कि बुद्धिमान वक्ता जब श्रोता को अपने इष्ट अर्थ का बोध कराने के लिए नियत शब्दों का नियतरूप में उच्चारण करता है और तभी श्रोता को वक्ता के तात्पर्य के विषयभूत अर्थ का ज्ञान होता है, अन्यथा नहीं। जैसे कि घट शब्द की शक्ति कम्बुग्रीवादिमान घटपदार्थ में है। अतः वक्ता जब श्रोता को घटअर्थ का बोध कराने के तात्पर्य से 'घट' शब्द को बोलता है तब इसको सुनकर श्रोता को घटअर्थ का बोध होता है। यहाँ वक्ता घट शब्द से इसको घट अर्थ का बोध हो-इस उपयोग से घटशब्दोच्चरण करता है। अतः यह भावभाषा है। उपयोग को शास्त्र में भाव कहा गया है और अनुपयोग में द्रव्य। अतः उपयोगात्मक भाव से प्रयुक्त होने से कार्य में कारण का उपचार करके इस भाषा को भी भावभाषा कहते हैं। ऐसा उपाध्यायजी ने बताया है। 435 30 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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