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________________ में लोकव्याप्त होते हैं, ऐसा आगम में कहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि सम्पूर्ण लोक में फैलने तक ये भाषापरिणाम का त्याग नहीं करते हैं। यदि वे उत्पत्तिकाल में अनंतर शब्दपरिणाम को छोड़ दें तब तो ये भाषा स्वरूप ही न होने से भिन्न भाषाद्रव्य सम्पूर्ण लोक में फैल जाते हैं-यह वचन ही अनुत्पन्न रह जायेगा। अतः आरम्भकाल के बाद भी शब्दपरिणाम से युक्त होने से द्वितीयादि समय में भी भिन्न भाषा द्रव्यभाषा के लह्यभूत ही है, अलह्य नहीं। मगर द्वितीयादि समय में भिन्न भाषाद्रव्यों में भाष्यमाणत्व नहीं है। वर्तमानकालीन प्रयत्न विषयत्वरूप लक्षण नहीं है। इसी प्रकार भाष्यमाण भाषा ऐसा भावभाष का लक्षण अव्याप्ति दोष से दृष्ट है। अव्याप्ति होने से ही भाष्यमाणेव भाषा इस प्रतिज्ञा का विरोध होगा। शंका-भाषाद्रव्यों का निसर्ग करने के बाद द्वितीयादी समय में भाषाद्रव्य वासित होने से उनमें वासना से शब्द परिणाम उत्पन्न होता है। अतः प्रथम समय की अपेक्षा द्वितीय समय में विलक्षण होने से ही वह भावभाषा का लक्ष्य नहीं है। अतः अव्याप्ति दोष नहीं है प्रत्युत्तर अलक्ष्य में न जाने से लक्षण समीचीन होता है। द्वितीयादि समय के भिन्न भाषाद्रव्य भी अलक्ष्य होने से भाष्यमाणा भाषा यह प्रतिज्ञा संगत है। . . अन्य भाषाद्रव्य में शब्द संस्कार का आधीन करने पर भी निसरणभाषा में शब्दपरिणाम रहता है। समाधान-जनाब! तीर नहीं तो तुक्का, यह यहाँ नहीं चलेगा। द्वितीयादि समय में वासना-पराघात से निसृष्ट भाषाद्रव्य भले अन्य भाषापरिणमन योग्य द्रव्यों में भाषापरिणाम को उत्पन्न करे, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य भाषाप्रयोग द्रव्य में भाषापरिणाम को उत्पन्न करने से निसृष्ट भाषाद्रव्य में विद्यमान शब्द का परिणाम चला जाए। अन्य भाषाद्रव्यों को वासित करने के बाद भी निसृष्ट भाषा में द्वितीयादी समय में शब्दपरिणाम के स्वीकार में कोई बाधा नहीं है, प्रत्युत्त इसका समर्थक भगवतीसूत्र भी है, जिसमें भाषापरिणाम की उत्कृष्ट स्थिति आवलिका के असंख्यभाग प्रमित असंख्य समय की बताई * गई है। अतः आपकी यह शंका निराधार है। . शंका-जनाब! आँखें मूंदकर बोलने से समस्या भी हल नहीं होती है, मगर सूक्ष्म बुद्धि से सोचने पर सही समाधान प्राप्त होता है। यहाँ सूक्ष्मदृष्टि-सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय की दृष्टि का आलम्बन लिया जाए तो भाष्यमाण भाषा-यह प्रतिज्ञावचन निर्दोष प्रतीत है। सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से सब चीज सत् होने से बिजली की तरह क्षणिक होती है। उत्पत्ति के अनन्तर समय में कार्य अपने-अपने उपादान कारण के साथ नष्ट होता है, जिसको निरन्वय नाश कहते हैं। भिन्न भाषाद्रव्य भी सत् होने से सूक्ष्म ऋजुसूत्र भी बिजली की तरह निरन्वय नष्ट होते हैं, द्वितीय क्षण में भाषा ही नहीं रहती है, तब भाष्यमाण भाषा इस लक्षण की प्रवृत्ति न होने से अव्याप्ति का अपादान करना कैसे संगत होता? क्योंकि द्वितीयादि समय में भाषा ही नहीं रहती है, तब अव्याप्ति कैसे आयेगी? सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय से भाष्यमाण भाषा का सिद्धान्त इस दुनिया में शेर को सवाशेर मिलना मुश्किल नहीं है। हमने बाल धूपों में नहीं पकाये हैं कि तुम्हारी बातों से हम मान जायें। सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से द्वितीय समय में भले ही भाषाद्रव्य का नाश हो जाय, इसका हम विरोध नहीं करते हैं। मगर सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से भी विजातीय संतति का प्रयोजक जब तक न आयेगा तब तक सजातीय संतति चलती रहती है, नष्ट नहीं होती है। यह तो सब को मालूम है न? निसर्ग के पश्चात् काल में भी भिन्न भाषाद्रव्यनिष्ट शब्दपरिणाम के सजातीय 433 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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