________________ 4. दीप्रादृष्टि यह चौथी दृष्टि है। इस दृष्टि में दीपक के प्रकाश के समान तत्त्वबोध स्पष्ट और स्थिर होता है। लेकिन वायु के झोंके से जिस प्रकार दीपक की लौ समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार कभी-कभी साधक का ज्ञानदीपक मिथ्यात्व के उदय से बुझ जाता है। इसमें साधक आध्यात्मिक को सुनता है किन्तु सूक्ष्मता से बोध नहीं होता है। इस दृष्टि से प्राणायाम नाम के योग का चौथा अंग प्राप्त होता है।" यह दृष्टि प्राप्त हो जाने पर साधक के अन्तःकरण में सहजतया प्रशांतरस का ऐसा प्रवाह बहता है कि उसका चित्त योग से हटता ही नहीं। यहाँ तत्त्व-श्रवण सिद्ध होता है अर्थात् तत्त्व सुनने और समझने के प्रसंग उपलब्ध होते रहते हैं। न केवल बाह्य रूप में वरन् अन्तःकरण द्वारा तत्त्व श्रवण की स्थिति उत्पन्न होती है, किन्तु सूक्ष्मबोध प्राप्त करना फिर भी बाकी रहता है। उपाध्याय यशोविजय आठ दृष्टि की सज्झाय में दीप्रादृष्टि का वर्णन करते हुए कहते हैं कि योगदृष्टि चौथी कही जी, दीप्रा तिहां न उत्थान। प्राणायाम ते भावथीजी, दीप प्रभासम ज्ञान।। -मनमोहन जिनजी, मीठी ताहरी वाण / / शास्त्रों में योगधर्म की चौथी दृष्टि दीप्रा नहीं है। उसमें उत्थान दोष का त्याग, तत्त्व-श्रवण गुण की प्राप्ति, भावप्राणायाम की सिद्धि एवं दीपक की प्रभा समान ज्ञानगुण प्राप्त होता है। प्राणायाम में पतंजलि के अनुसार आध्यात्मिक पात्रता की आवश्यकता नहीं है, मात्र शारीरिक पात्रता की आवश्यकता है। किन्तु धर्म पर प्राणायाम का अर्थ सिर्फ श्वास-नियंत्रण नहीं लिया गया ह7.. अपितु दो प्रकार के प्राणायाम का वर्णन करते हैं-द्रव्य प्राणायाम और भाव प्राणायाम।18 उपाध्याय यशोविजय ने आठ दृष्टि की सज्झाय में बताया है कि द्रव्य प्राणायाम में श्वास खींचना पूरक है, श्वास छोड़ना रेचक है तथा श्वास को रोककर रखना कुम्भक है। यह पतंजलि के समानान्तर है और इसको ही योग का चौथा अंग मानते हैं, जबकि जैनाचार्य द्रव्य प्राणायाम नहीं, भाव प्राणायाम को ही योग का चतुर्थ अंग स्वीकारते हैं। इस भाव प्राणायाम का वर्णन पतंजलि के योगदर्शन में नहीं मिलता है। भाव प्रणायाम से अवश्य योगदशा प्राप्त होती है। उपाध्याय यशोविजय ने भाव प्राणायाम का वर्णन करते हुए कहा है-जिस प्रकार प्राणायाम न केवल शरीर को ही सुदृढ़ बनाता है बल्कि आन्तरिक नाड़ियों के साथ-साथ मन के मैल को भी धोता है, ठीक उसी प्रकार इस दृष्टि में रेचक प्राणायाम की तरह बाह्य परिग्रहादि विषयों में समत्व बुद्धि तो रहती है लेकिन पूरक प्राणायाम की भांति विवेकशक्ति की भी वृद्धि होती है और कुम्भक प्राणायाम की तरह ज्ञान केन्द्रित होता है। ताराद्वात्रिंशिका में इसे भावप्राण कहा गया है तो साधक इस दृष्टि पर अपना अधिकार कर लेते हैं। वे बिना किसी संदेह के धर्म पर श्रद्धा करने लगते हैं। उनकी श्रद्धा इतनी प्रबल हो जाती है कि वह धर्म के लिए प्राण का त्याग कर सकता है, लेकिन प्राण की रक्षा के लिए धर्म का त्याग नहीं कर सकता। इस दृष्टि में आये हुए व्यक्ति को यह बोध होता है कि धर्म ही एक सच्चा मित्र है। परभव में आत्मा के साथ वही आता है। शेष सभी तो शरीर के साथ ही विनाश हो जाते हैं। इस प्रकार उत्तम आशय से युक्त तत्त्वश्रवण करता है। उसके प्रभाव से प्राणों से भी श्रेष्ठ धर्म को स्वीकारता है। इस प्रकार संसार को क्षारयुक्त पानी के तुल्य मानता है और तत्त्वश्रुति को मधुर जल के समान मानता है। 24 388 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org