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________________ जिसमें योग के भी भेद-प्रभेद शास्त्रकारों ने किये। कुछ भेद में आत्मा के योग परिणाम अल्प होते हैं तो कुछ भेद में उत्कृष्ट भी होते हैं। इस प्रकार उपाध्याय यशोविजय एवं आचार्य हरिभद्र ने पूर्वाचार्यों का अनुकरण एवं अपने अनुभव बल पर अपने ही ग्रंथों में भेद-प्रभेदों का निरूपण किया है तथा अन्य दर्शनकारों ने जो योग के भेद माने हैं, वे भी इनके द्वारा प्ररूपित भेदों में समाविष्ट हो जाते हैं। उनकी माध्यस्थवृत्ति ने अन्य दर्शन के योग को भी अलग नहीं रखा है, इतना अवश्य हो सकता है कि नाम में भेदता आ सकती है, लेकिन पारमार्थिक भिन्नता नहीं है। उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञानयोग एवं क्रियायोग दोनों को महत्त्व प्रदान किया है। ज्ञानयोग और क्रियायोग दोनों का जब समन्वय होता है तब आत्मा अपने गन्तव्य स्थान में पहुंचती है। योगविंशिका में सर्वप्रथम स्थानादि पांच भेद बताकर उनको दो भागों में विभक्त किये हैं ठाणुनत्थालंबणनहिओ तंतम्भि पंचहा एसो। दुगमित्थ कम्मजोगो तहा तियं नाणजीगो।।367 स्थान, उर्ण, अर्थ, आलम्बन और निरालम्बन-यह पाँच प्रकार का योग शास्त्रों में कहा है। प्रथम दो प्रकार का योग क्रियायोग है तथा पीछे के तीनों योग ज्ञानयोग हैं। इसी बात की पुष्टि करते हुए उपाध्याय यशोविजय ने योगविंशिका टीका में बताया है कि.. स्थानादिगतौ धर्मव्यापारो विशेषेण योग इत्युक्तम्, तंत्र के ते स्थानादयः? कतिभेदं च तत्र योगत्वम्? इत्याह / स्थानयोग-जिसके द्वारा स्थिर बना जाए, ऐसा आसन विशेष स्थानयोग कहलाता है, यथा-कायोत्सर्ग, पद्मासन, सिद्धासन, सुखासन, विरासन आदि। उर्णयोग-धर्मक्रिया में उच्चार्यमाण सूत्रों के शब्दों का शुद्ध उच्चारण करना, यद्यपि यह वाचिक * क्रिया है, फिर भी मोक्षानुकुत्पाल परिणामजनक होने से योग कहलाती है। अर्थयोग-धर्मक्रिया में उच्चार्यमान सूत्रों के वाच्य अर्थ को जानने के लिए आत्मा के परिणाम, वह अर्थयोग कहलाता है। आलंबन योग-प्रतिमा विषयक ध्यान! योग को प्रतिमा आदि के आलंबन में स्थिर करना। निरालंबन योग-बाह्यालंबन बिना ज्ञान मात्र में ही लीन हो जाना। इन पाँच योगों में से प्रथम के दो योग क्रियात्मक होने से कर्मयोग है और पश्चात् के तीन चिन्तनात्मक होने से ज्ञानयोग है। स्थानादि पांच योगों में योग का लक्षण आत्मा को मोक्ष के साथ गुंजित करे, वह योग। यह लक्षण घटित होने से निरूपचरित अर्थात् वास्तविक योग है। परन्तु महर्षि पतंजलि ने चित्तवृत्ति निरोध ही मोक्ष का आसन्न कारण माना है। उससे चित्तवृत्ति निरोध को है, उसी से स्थानादि पांचों योग चित्तवृत्तिनिरोधात्मक-ऐसे मुख्य योग के कारण बनते हैं, परन्तु अनन्तरूप से मोक्ष का कारण नहीं है। षोडशकजी की टीका में भी यम, नियम, चित्तवृत्ति निरोधात्मक योग के अंग होने से अंग ने अंगी का उपचार करके योग कहा है। जैनदर्शनकार के मान्य ऐसे योग के लक्षण को ध्यान में रखा जाए तो चित्तवृत्तिनिरोध और स्थानादि-पांचों योग उभय निरूपचरित है। 377 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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