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________________ . जो योग फल प्राप्ति के प्रति सामान्यता से योग्यता धारण करता है, ऐसा जो प्रस्तुत योग, व्यवहारनय से योग कहलाता है। जिस प्रकार प्रत्येक धान के कण में अंकुरोत्पादन की योग्यता सामान्य रूप से होती है परन्तु प्रत्येक कण में से अनन्तर या निश्चय में अंकुरे उत्पन्न हो हीं, ऐसा नियम नहीं है। कारण कि उनका चूर्ण करके भोजन भी बनाया जाता है। परन्तु योग्यता मात्र से कारण कार्योत्पत्ति का कारण समझकर व्यवहार होता है, उसी प्रकार गुरु विनयादि गुण भी योग की उत्पत्ति की योग्यता धारण करने से व्यवहार नय से योग कहलाते हैं। रत्नत्रयी तो आत्मा का वास्तविक गुण है। इनका तो आत्मा के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। उसी से उन गुणों के साथ आत्मा का जो संबंध है, वह तो योग कहलाता ही है, कारण कि वे मुक्ति के प्रधान कारण हैं। परन्तु रत्नत्रयी के कारणभूत ऐसे गुरु विनय, शुश्रुषा आदि को भी कहा है, वह सभी नयों के अभिप्रायं को स्वीकार करके कहा है। अर्थात् निश्चयनय से जैसे कार्य को कार्य कहते हैं, वैसे ही व्यवहारनय से कारण को भी कारण में कार्य का उपचार करके कहा जाता है। उसी में व्यवहारनय से गुरु विनयादि रूप धर्मानुष्ठान भी रत्नत्रय के कारण होने से योग कहलाते हैं। जिस प्रकार रत्नत्रयी का जो संबंध है, वह निश्चयनय से योग कहलाता है, उसी प्रकार रत्नत्रयी के कारणों के साथ जो संबंध है, वह भी व्यवहारनय से योग कहलाता है। - व्यवहारनय से कारण में कार्य का उपचार करके जो योग कहा है, वे कारण दो प्रकार के हैं1. अनन्तर, 2. परस्पर। भिन्न-भिन्न कारण होने से दोनों कारणों को योग कहा गया है। व्यवहार योग का स्वरूप इस प्रकार है-धर्मशास्त्रों में कथितविधि, गुरु का विनय, परिचर्या करना, यथाशक्ति विधि-निषेधों का पालन करना, गुरुदेवों का विनय करना, धर्मशास्त्र सुनने की अतिशय उत्कण्ठा " होना, शास्त्रों का ज्ञानाभ्यास स्थानशुद्धि, शरीरशुद्धि, मनशुद्धि, वस्त्रशुद्धि पूर्वक करना। - आचार्य हरिभद्र सूरि ने योगशतक की वृत्ति में यहाँ तक कह दिया किअविधे, प्रत्यवाय हेतुत्वात् अकृतोऽविधिकृत योगादवदम् असचिकिन्सोदाहरणादिति-भावनीयम् / अविधि से किया गया योग का सेवन अनर्थ का कारण बनता है। अविधि से किये गये योग के सेवन से तो नहीं किये गये योग का सेवन श्रेष्ठ है। प्रतिक्रिया लाए, वैसी विपरीत चिकित्सा करने से तो चिकित्सा न करनी अच्छी है। अर्थात् जिस औषधि से विपरीत परिणाम आये, उससे तो औषधी न लेना अच्छा है। उसी प्रकार अविधि से योग का सेवन करने से कर्मों की निर्जरा नहीं होती है। परन्तु उससे विपरीत अन्य का पराभव स्वर्ग यशादि की इच्छा होने से संसार बढ़ता है। . उन्होंने यह बात विधि-निरपेक्ष जीवों के लिए की है कि ये अविधि से योग का सेवन करके गर्व धारण करते हैं, प्रायश्चित्त आदि का सेवन भी नहीं करते, अविधिमार्ग को प्रोत्साहन देते हैं। ऐसे जीवों के लिए अविधिकृत योग सेवन से योगसेवन नहीं करना ही अच्छा है, लेकिन विधि सापेक्ष वाले जीवों के लिए यह बात नहीं है, क्योंकि उनके संधयणबल, रोगावस्था आदि के कारण अविधि हो ही जाती है तो उनको अत्यन्त दुःख होता है। प्रायश्चित्त आदि भी ग्रहण करते हैं, अतः उन जीवों के लिए तो नहीं करने से तो अविधि से भी करना अच्छा है। इस कथन के द्वारा योगमार्ग के साधक आत्माओं को योग का अनुष्ठान विधिपूर्वक करने का आग्रह सूचित किया है, साथ में ही व्यवहार योग को विशेष महत्त्व दिया है और कहा है कि कालक्रम 373 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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