________________ (ब) योग, स्वरूप एवं लक्षण योग शब्द भारतीय संस्कृति तथा दर्शन की बहुमूल्य सम्पत्ति है। भारत भूमि में दर्शन एवं योग के बीज तो बहुत पहले से ही बोये गये हैं। उसकी उपज भी क्रमशः बहुत बढ़ती गई है। योग विद्या ही एक ऐसी विद्या है जो प्रायः सभी धर्मों तथा दर्शनों में स्वीकृत है। अनेकता में एकता की खोज है। यह ऐसी आध्यात्मिक साधना है, जिसे कोई भी बिना किसी वर्ण, जाति, वर्ग या धर्म-विशेष की अपेक्षा से अपना सकता है। प्राचीन भारतीय धर्म, पुराण, इतिहास आदि के अवलोकन से ज्ञात होता है कि योग प्रणाली की परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती आई है। वैदिक तथा अवैदिक वाङ्मय में आध्यात्मिक वर्णन बहुलता से पाया जाता है। इनका अन्तिम साध्य उच्च अवस्था की प्राप्ति है और योग उसका एक साधन है। योगमूलक जैन साहित्य योगविद्या के प्रवर्तकों में महर्षि पतंजलि अग्रगण्य एवं प्रधान आचार्य हैं, जिन्होंने अनेक प्राचीन ग्रंथों में बिखरे हुए योग संबंधी विचारों को अपनी असाधारण प्रतिभा तथा प्रयोगों द्वारा सजा-संवार कर योगदर्शन ग्रंथ का प्रणयन किया। यह ग्रंथ उनकी असाधारण प्रतिभा तथा गम्भीर मेधाशक्ति का परिचायक है। जैन परम्परा में सर्वप्रथम ई. 8वीं शती में हरिभद्रसूरि ने योग शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक अर्थ में किया है। उन्होंने जैन योग पर योगदृष्टि समुच्चय और योगबिन्दु नामक दो ग्रंथ संस्कृत में तथा . योगशतक और योगविंशिका नामक दो ग्रंथ प्राकृत में लिखे। इन चार ग्रंथों में जैन योग पर विभिन्न अपेक्षाओं से विचार-मंथन किया गया है। आचार्य हरिभद्र के पश्चात् बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में आचार्य हेमचन्द्र हुए, जो अपने युग के महान् विद्वान थे। उन्होंने व्याकरण, कोष, काव्य, न्याय आदि विषयों पर अनेक ग्रंथ लिखे। ये कलिकाल सर्वज्ञ के विरुद से विभूषित थे। उनकी प्रेरणा से कुमारपाल ने जैनधर्म स्वीकार कर लिया था। कुमारपाल के निवेदन पर उन्होंने अध्यात्म, उपनिषद् या योगशास्त्र की रचना की। इसमें था जैन साधना का योग के रूप में प्रतिपादन। आचार्य हेमचन्द्र के समय के आस-पास . दिगम्बर परम्परा में भी एक महान् विद्वान् योग निष्णात आचार्य हुए, जिन्होंने ज्ञानार्णव नामक ग्रंथ की रचना की। वह भी जैन योग पर एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। और भी अनेक विद्वानों ने इस विषय में रचनाएँ की, जिनमें उपाध्याय यशोविजय का नाम बहुत प्रसिद्ध है। ____ उपाध्याय यशोविजय ने दर्शन एवं योग को आत्मसात् किया तथा उत्तरकाल में योग प्रियता उत्तरोत्तर विकास की श्रेणी में विकस्वर बने, अतः उन्होंने अनि मति वैभवता को विपुल बनाते हुए एवं प्राणियों के हित की इच्छा से योग ग्रंथों की रचना कर एक अचिन्त्य चिन्तन जगत् के सामने प्रस्तुत किया। यशोविजय का समय 18वीं शताब्दी है। इन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, योगावतार बत्तीसी, पातंजल योगसूत्र वृत्ति, योगविंशिका की टीका, षोडशक प्रकरण की टीका, योगदीपिका आदि की रचना की है। इन ग्रंथों में इन्होंने योग संबंधी बहुत-सी बातों का विवेचन व स्पष्टीकरण किया है। इन ग्रंथों में उपाध्याय यशोविजय ने योग की सामग्री भर दी है, साथ ही उदारवादी एवं समन्वयवादी बनकर सभी दर्शनों की योग मान्यताओं को स्थान दिया है। इसी कारण इनमें योग विषयक ग्रंथों का प्रभाव अध्यात्म जिज्ञासुओं पर गहरा पड़ा। 368 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org