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________________ के अनुसार गमन करते समय होता है। तब वह जीव के स्वभाव के स्वरूप को स्थिर करता है। कुछ कर्मों का विपाक शारीरिक पुद्गलों आदि के माध्यम से भी प्राप्त होता है। फिर भी इन सबका संबंध जीव से है। लेकिन विपाक माध्यमों व निमित्तों की प्रमुखता का बोध कराने के लिए उन्हें चार विभागों में विभाजित कर लिया गया है। जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, क्षेत्र-विपाकी और भव-विपाकी। जीव विपाकी-जो प्रकृति जीव में ही अपना फल देती है अर्थात् जिसका फल साक्षात् अनुजीवी गुणों के घातरूप प्राप्त होता है, उसे जीव विपाकी कर्म कहते हैं। पुद्गल विपाकी-जो प्रकृत शरीर रूप में परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं के माध्यम द्वारा अपना फल देती है, वह पुद्गल विपाकी है। क्षेत्र विपाकी-विग्रह गति में जो कर्म उदय में आते हैं, उन्हें क्षेत्र विपाकी कहते हैं। भव विपाकी-जो कर्म नर-नरकादि भावों में अपना फल देते हैं, उन्हें भवविपाकी कहते हैं। . इन विभागों में दर्शनान्तर मान्य सभी विपाक भेदों का समावेश हो जाता है। इन चार प्रकारों का वर्णन उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी टीका में भी किया है। सर्वथा कर्मक्षय कैसे? कर्म का आत्मा के साथ क्षीरनीरवत् एकमेव सम्बन्ध होने से उनका सम्पूर्ण नाश अशक्य लगता है। हाँ! अंशतः उनका नाश हो सकता है। लेकिन यह विचारधारा अज्ञानता की ही सूचक है। उपाध याय यशोविजय कहते हैं कि प्रतिपक्षभूत सम्यग्दर्शनादि के सेवन से कर्मावरणों का अंशतः क्षय होता है, यह ज्ञानादि में दृष्टिगोचर होता है। जैसे ज्ञान प्राप्ति के लिए पढ़ाई का परिश्रम करते हैं तो क्रमशः ज्ञानवृद्धि का अनुभव होता है। जैसे एक व्यक्ति, एक समय, एक लाईन भी याद नहीं कर सकता था वह भी भविष्य में 5 श्लोक भी याद करता है, क्योंकि पढ़ाई करते-करते उत्तरोत्तर ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता जाता है और ज्ञान वृद्धि को प्राप्त करता जाता है। प्रथम ज्ञानावरण अधिक था तो ज्ञान प्रगट नहीं था, अब कुछ ज्ञान प्रगट हुआ है तब समझना चाहिए कि आवरणों का कुछ नाश हुआ है। तो इससे फलितार्थ होता है कि सर्वोच्च-प्रतिपक्ष सेवन से कर्मावरण बिल्कुल नष्ट होकर सर्वज्ञता भी उत्पन्न हो सकती है। जैसे कि अल्पचिकित्सा से रोग का कुछ क्षय और उत्कृष्ट चिकित्सा से सर्वथा रोगनाश एवं अल्प पवन से बादल का कुछ बिखरना और अतिशय पवन से बादल का सर्वथा अभाव होता है। उसी प्रकार जीव से एकरस हुए भी कर्म आवरण चिकित्सा से रोग की तरह प्रतिपक्ष सम्यग्दर्शन के सेवन से क्षीण हो ही जाए, इसमें कोई शंका का स्थान नहीं है। ऐसा नहीं होता तो आज तक सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके अनन्त आत्मा मोक्ष में गई है। वह बात कैसे घटेगी? इस प्रकार कर्म के बंध के भेद, स्वभाव, विपाक एवं कारणों को जानकर जीव उससे मुक्त होने का प्रयत्न करते हुए सम्यग्ज्ञान के सत्यार्थ बल से मिथ्याज्ञान से निवृत होता है, मिथ्यात्व का नाश होने से उसके मूल स्वरूप रागादि नहीं रहते, रागादि के अभाव में तदाधीन धर्म-अधर्म की उपपति नहीं होने से पूर्वकृत एवं वर्तमान बध्यमान कर्मों का तत्त्वज्ञान से, उपभोग से प्रक्षय सम्पूर्ण क्षय होता है। जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्मीभूत करता है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सर्वकर्मों को भस्मीभूत करता है। नित्य-नैमितिक आराधना से दुरित क्षय होता है, उससे आत्मा ज्ञान को निर्मल करके अनुभवपूर्वक दृढ़ करता है, अभ्यासपूर्वक अनुभव ज्ञान से मनुष्य केवलज्ञान को प्राप्त कर अंत में शैलेषी अवस्था में 360 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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