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________________ यद्यपि आत्मा में अनन्तगुणों के होने से उनको आवृत्त करने वाले कर्मों के भी अनन्त भेद होंगे, परन्तु सरलता से समझने के लिए उन अनन्त गुणों में से आठ गुण मुख्य हैं। उनमें शेष सभी गुणों का समावेश हो जाता है। ये आठ गुण इस प्रकार द्रव्यसंग्रह की टीका में मिलते हैंसम्मतणाण दंसण वीरिय सुहमं तहेव अवगहणं अगुरुलहु अव्वावाहं अढगुणां हुति सिद्धाणं। ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, वीर्य, अव्याबोध सुख, अटल अवगाहन, अमूर्तत्व और अगुरुलघुत्व। उक्त आठ गुणों को आवृत्त करने के कारण कर्म परमाणु भी आठ गुणों में विभक्त हो जाते हैं और अलग-अलग नामों से संबोधित किये जाते हैं अर्थात् आत्मा के अनन्त गुणों में से ज्ञान, दर्शन आदि आठ गुणों को मुख्य मानने से उनको आवृत्त करने वाले कर्मों के भी आठ भेद हैं। उनके नाम उत्तराध्ययन सूत्र में इस प्रकार मिलते हैं नाणस्सावरणिज्जं दंसावरणं तहा। वेयणिज्जं तहा मोहं अडकम्मं तहेव य।। नाम कम्मं च गोयं च अन्तराय तहेव य। एवमयाई कम्माइं अट्ठेव उ समासओ।। उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी टीका में इन्हीं नामों का उल्लेख किया हैज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाख्याः कर्मणोष्टौ-मूलप्रकृतयः। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय-ये आठ मूल कर्म हैं। . इन आठ कर्मों का वर्णन श्री भगवतीजी, स्थानांग, प्रज्ञापना," अभिधान राजेन्द्रकोश, पंचसंग्रह, प्रथम कर्मग्रंथ," तत्त्वार्थ, नवतत्वै, धर्मसंग्रहणी, श्रावकप्रज्ञप्ति, प्रशमरति आदि ग्रंथों में भी है, क्योंकि इनसे आत्मा के चार मूल गुणों-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का घात होता है। शेष चार अघाती प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि ये आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करती। इतना ही नहीं, ये आत्मा को ऐसा रूप प्रदान करती हैं, जो उसका निजी नहीं अपितु पौद्गलिक-भौतिक है। ज्ञानावरण आदि चार कर्मों की घाती संज्ञा सार्थक है। इनका सीधा प्रभाव जीव के स्वाभाविक / मूल पर पड़ता है। ये इन गुणों का घात करते हैं, जैसे कि ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञान गुण को, बादलों का समूह जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश को आच्छादित करके उसे निस्तेज कर देते हैं, उसी प्रकार घाती कर्म भी आत्मगुणों को घात करके उसे निस्तेज कर देते हैं, लेकिन इतना तो अवश्य समझने योग्य है कि घाती कर्म आत्मा के गुणों को कितना ही आच्छादित कर दे, फिर भी उसका अनन्तवां भाग तो अवश्य अनावृत रहता है, क्योंकि घाती कर्म का भी सम्पूर्ण आवृत करने का सामर्थ्य नहीं है। यदि अनन्तवां भाग भी आवृत हो जाए तो जीव का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा तथा जीव और अजीव में कोई अन्तर नहीं रहेगा। जीव ही अजीव माना जायेगा, जैसा कि नंदीसूत्र में कहा है सव्व जीवाणं णियमं अक्खरस्स अनंत भागो णिच्चुधादिओ हवइ। जइ पुण सो वि आवदिज्जा तेणं जीवो अजीवतं पावेज्जा।। सभी जीवों का निश्चित अक्षर का अनन्तवां भाग अनावृत होता है। यदि वह भी आच्छादित हो जाए तो जीव अजीवता को प्राप्त कर लेगा। आत्मगुणों का साक्षात् घात करने से घाती कर्मों को कर्म कहते हैं और अघाती कर्मों का आत्मा के साथ परोक्ष सम्बन्ध होने से तथा कर्मों के कार्य में सहायक 336 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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