________________ 2. बद्ध बन्ध-पैक बण्डल में बंधी हुई सुइयों के समान गुरु कर्मों का जीव-प्रदेशों के साथ कर्मबन्धन होता है। उसे बद्धबन्ध कहते हैं। यह विशेष प्रयत्न अर्थात् प्रायश्चित्त आदि द्वारा क्षय होता है, जैसे धागे में गांठ खींचकर लगाई हो तो खोलने में कठिनाई होती है, वैसे ही यह गांठ बंध होता है। जैसे अङ्मुता मुनि को प्रायश्चित्त करते हुए कर्मों का क्षय हो गया। स्वेच्छा से कर्म करता है। 3. निधत बन्ध-सूईयां कई वर्षों से चिपकी हुई पड़ी हैं, जिनमें पानी या जंग लग जाने से एक-दूसरे से ज्यादा चिपक जाने से आसानी से अलग नहीं पड़ती। रेश्मी धागे में लगाई गई पक्की गांठ खोलना बहुत मुश्किल है। वैसे ही आत्मा के साथ कर्म का बंध तीव्र कषाय से ज्यादा मजबूत होता है, जो आसानी से नहीं छूटता। यह निधत बन्ध तपश्चर्या आदि से बड़ी कठिनाई से क्षय होता है। जैसे अर्जुनमाली इच्छा से आनन्दपूर्वक कर्म करता है। 4. निकाचित बन्ध-सूइयां अग्नि की गर्मी के कारण पिघल कर लोहे की प्लेट के जैसे एक रस हो गईं। अब सूई स्वतंत्र आकार में नहीं दिखती है। अब उसे किसी भी प्रयत्न से अलग नहीं कर सकते। रेशमी धागे में गांठ कसकर लगा दी, ऊपर मोम लगा दिया, अब वह खुलना संभव नहीं। उसी प्रकार निकाचित कर्म-बंध तपादि अनुष्ठान से सूक्षम नहीं होते हैं। जैसे महावीर स्वामी ने 18वें त्रिपुष्ट वासुदेव के भव में राटयापालकों के कानों में गर्म-गर्म शीशा डलवाकर जो भयंकर निकाचित कर्म बांधा था फलस्वरूप अन्तिम सत्ताइसवें भव में महावीर स्वामी के कानों में खीले ठोके गए। यह स्वतंत्र शंकारहित रसपूर्वक करता है। कर्मों के भेद-प्रभेद सामान्यतः कर्म का कार्य है मोक्षप्राप्ति न होने देना। इस दृष्टि से विचारें तो कर्म का कोई भेद नहीं होता है और भेद-प्रभेद करने की आवश्यकता भी नहीं है। लेकिन जैसे हम क्षुधा शान्त करने के लिए भोजन करते हैं, तब ही वह भोजन रुधिर मांस आदि धातु, उपधातुओं के रूप में परिवर्तित होते हैं, उसी प्रकार कर्म परमाणु भी कृत-कर्म के अनुरूप जीव के गुणों को आवृत्त करने के साथ-साथ सुख-दुःख का वेदना कराते रहते हैं। इसी आपेक्षिक दृष्टिकोण के अनुसार कर्मों के भेद किये गये हैं। साधारणतया सभी दार्शनिकों ने कर्म के भेदों का उल्लेख अच्छा कर्म और बुरा कर्म-इन दो प्रकारों में किया है। लोक-व्यवहार में भी कर्म के भेदों के लिए यही धारणा प्रचलित है। इन्हीं को विभिन्न शास्त्रकारों ने शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल, शुक्ल-कृष्ण, अच्छा-बुरा आदि नामों से सम्बोधित किया है, जैसे-षड्दर्शन समुच्चय की टीका में कर्म के दो भेद इस प्रकार मिलते हैं-तत्र पुण्यं शुभाः कर्म कर्मपुद्गला। त एव त्वशुभाः पापम्। शुभः पुण्यस्व्याशुभः पापस्य। अच्छा फल देने वाला कर्म पुद्गल पापरूप है। इससे यह कहा जा सकता है कि कर्म के शुभ-अशुभ आदि के रूप में जो दो भेद दिये हैं, ये प्राचीनतम हैं और प्रारम्भिक कर्म विचारणा के समय दार्शनिकों ने यही दो भेद स्वीकार किये होंगे। इनके अतिरिक्त भी दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न दृष्टियों से कर्म के भेद किये हैं। जैसे कि गीता में सात्विक, राजस् और तामस्-ये तीन भेद मिलते हैं। इसका पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ आदि पूर्वोक्त सर्वमान्य भेदों में समावेश हो जाता है। फल की दृष्टि से कर्म के संचित, प्रारब्ध और क्रियामण-ये तीन भेद दर्शनान्तरों में दिखाई देते हैं। जिसका फल आरब्ध हुआ, वह प्रारब्ध, जो वर्तमान जन्म में कृत हो रहा है, वह क्रियामण है एवं जिसका फल वर्तमान जन्म में आरब्ध नहीं हुआ, वह वंचित है। इन भेदों में जैन दर्शन मान्य उदय के 334 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only