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________________ अर्थात् राग-द्वेष और मोह कर्मबन्ध के कारण हैं। इस कथन में दर्शनान्तरों की मान्यता का समावेश हो जाता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी योगशतक में राग-द्वेष तथा मोह को आत्मा के दूषण बताये हैं तथा उनको आत्मा के वैभाविक परिणाम कहे है तथा श्रावकप्रज्ञप्ति, कम्मपयडी टीका में भी कर्मबन्ध के हेतु कहे हैं। उपरोक्त बन्ध चार प्रकार का है-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश। ऐसा उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी टीका में बताया है-तथाऽविशेषिताऽचिवक्षिता रस प्रकृतिः उपलक्षणात् स्थित्यादयोऽपि यस्मिन् स प्रकृतिबन्धो ज्ञातव्य। तु शब्दस्याधि कार्यसंसूचकत्याद विवक्षित रस प्रकृति प्रदेशः स्थितिबन्धः, अविवक्षित प्रकृतिस्थिति प्रदेशो रसबन्धः अविवक्षित प्रकृति स्थितिरसः प्रदेशबन्ध इत्यपि दृष्टिव्यं / / जिस प्रकार सन्तप्त लोहे के गोले को पानी में डालने पर वह सब ओर से पानी को ग्रहण किया करता है, उसी प्रकार क्रोधादि कषायों से सन्तप्त हुआ जीव, जो सब ओर से कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण किया करता है, वह बन्ध कहा जाता है। वह चार प्रकार का है-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध। इन चारों का अर्थ नवतत्त्व में संक्षेप में इस प्रकार बताया है पयई सहावो बुतो ठिई कालावहारणं। अणुभाग रसो णेओ पएसो दल संचओ।। प्रकृति का अर्थ स्वभाव, स्थिति अर्थात् समय की निश्चितता, अनुभाग यानी रस-प्रदेश यानी परमाणुओं का प्रमाण। इन चारों का अर्थ पंचसंग्रह में भी संक्षेप में बताया गया है ठिईबंधु दलस्स ठिई, पएसबंधो पएसग्रहणं ज। ताण रसो अणुभागो, तस्समुदाओ पगइबधो।।* - अर्थात् स्थितिबंध यानी दलिक की स्थिति, प्रदेशों का ग्रहण यानी प्रदेशबंध। उनका जो रस वो अनुभाग, उनके समुदाय को प्रकृतिबंध कहते हैं। उपाध्याय यशोविजय द्वारा रचित कम्मपयडी टीका के भावानुवाद में इसी स्वरूप को इस प्रकार बताया गया है 1. प्रकृतिबन्ध-ज्ञानावरण आदि स्वभाव वो प्रकृति। बन्धन के स्वभाव का निर्धारण प्रकृतिबन्ध करता है। यह, यह निश्चय करता है कि कर्मवर्गणा के पुद्गल आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि किस शक्ति को आवृत्त करेंगे। 2. स्थितिबन्ध-स्थिति यानी प्रतिनियतरूप काल अवस्था। कर्म परमाणु कितने समय तक आत्मा से संयोजित रहेंगे और कब निर्जरित होंगे, इस काल-मर्यादा का निश्चय स्थिति बन्ध करता है। अतः यह बन्धन की समय-मर्यादा का सूचक है। 3. अनुभागबन्ध-अनुभाग यानी शुभ-अशुभ आदि रस हैं। कर्मों के बन्धन और विचार की तीव्रता एवं मन्दता का निश्चय करना, यह अनुभाग बन्ध का कार्य है। दूसरे शब्दों में यह बन्धन की तीव्रता या गहनता का सूचक है। 4. प्रदेशबन्ध-कर्मों की बहुत बहुतम रूप अवस्था। यह कर्म-परमाणुओं की आत्मा के साथ संयोजित होने वाली मात्रा का निर्धारण करता है। अतः यह मात्रात्मक होता है। 332 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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