________________ आत्मा और कर्म के संयोग को दर्शनान्तरों ने अन्य नामों से स्वीकार किया है, जिनका योगबिन्दु में स्पष्ट उल्लेख किया है भ्रान्ति-प्रवृत्ति-बन्धास्तु संयोगश्चेति कीर्तितम्।" आत्मा और कर्म का जो सम्बन्ध है, उसे वेदान्त दर्शनवादी तथा बौद्ध भ्रान्ति कहते हैं। सांख्य उसे प्रवृत्ति कहते हैं तथा जैनदर्शनकार उसे ही बन्ध कहते हैं। कैसे बंधते हैं कर्म-कर्मबंध के कारण कर्म के सम्बन्ध में बहुत लम्बी चर्चा हो जाने पर भी एक प्रश्न ज्यों का त्यों खड़ा है। वह हैबन्धन की प्रक्रिया से संबंधित। आत्मा के साथ कर्म का बन्धन क्यों होता है? बन्धन सहेतुक है या निर्हेतुक? वह आमंत्रित है या अनायास हो जाता है? आत्मा चेतन है और कर्म जड़ है? जड़ और चेतन का योग संभव है क्या? न हि अकारणं कार्य भवति। कारण के बिना कार्य नहीं हो सकता, यह शाश्वत नियम है। इसी के आधार पर कारण-कार्यवाद की परम्परा चली। कर्मबन्धन भी अकारण नहीं है। यदि उसे अकारण मान लिया जाए तो सिद्धों के - भी कर्म बन्धन का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। इसलिए बन्धन के हेतु पर विचार करना होगा। जैन दर्शन के अनुसार लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ कर्म योग्य पुद्गल परमाणु न हों। जीव के मन, वचन और काय के निमित्त से अर्थात् जीव की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति के कारण कर्म योग्य परमाणु चारों ओर से आकृष्ट हो जाते हैं तथा कषायों के कारण जीवात्मा से चिपक जाते हैं। कर्म बन्ध के कारण ... जीवात्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादि है। कर्म चाहे शुभ हों या अशुभ, त्याज्य हैं, क्योंकि वे संसार के कारण हैं, भवभ्रमण के कारण हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा है कि शुभकर्म स्वर्णशृंखला है तथा अशुभ कर्म लोहे की श्रृंखला है। लोहे की बेड़ी भी बांधती है और स्वर्ण की भी बांधती है। इस प्रकार किया हुआ शुभ-अशुभ कर्म जीव को बांधता ही है। . कर्मबंध का मूल कारण है-इच्छा। मानव के सुख-दुःख का कारण इच्छा ही है। यह कहा जा सकता है कि कर्म का बंध इच्छा का बंध है। परिग्रह अथवा विषयाभिलाषा का कोई अंत नहीं हो सकता। इनकी समाप्ति तभी हो सकती है जब व्यक्ति पूर्णत: इच्छामुक्त हो जाये, वीतराग हो जाये। जैसे ही वह विषय की इच्छा करता है, उसका कार्मण शरीर तदनुसार कर्मों को आकर्षित कर लेता है। यह प्रक्रिया किसी बाह्य लक्षण से नहीं होती बल्कि आत्मा स्वयं अपनी शक्ति से इन कार्मण परमाणुओं को आकर्षित करता है। इसी से पुनर्जन्म प्राप्त होता है। कर्मों के उदय, कारण और परिणामों की चर्चा जैन ग्रंथों में विस्तृत रूप से हुई है-जीव सकषाय होने से कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, यही बंध है। जिस प्रकार भण्डार से पुराने धान्य निकाल लिये जाते हैं एवं नये भर दिये जाते हैं, उसी प्रकार अनादि इस कार्मण शरीर रूपी भण्डार में कर्मों का आना-जाना होता रहता है। पुराने कर्म फल देकर सड़ जाते हैं और नए कर्म आ जाते हैं। द्रव्यसंग्रह के 5 कारण दिये गये हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगशतक में 5 हेतु बताये हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग एवं कषाय। 329 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org